निर्वाचन में भाग लेने के लिए जो पात्रताएँ दर्शाई गई हैं वे इस प्रकार हैं -
- प्रत्येक उम्मेदवार के पास एक चौथाई वेली (भूमि का क्षेत्र) कृषि भूमि का होना आवश्यक था।
- अनिवार्यतः उसके पास स्वयं का घर हो।
- आयु ३५ या उससे अधिक परंतु ७० वर्ष से कम हो।
- मूल भूत शिक्षा प्राप्त किया हो और वेदों का ज्ञाता हो।
- पिछले तीन वर्षों में उस पद पर ना रहा हो। यानि हर बार नया व्यक्ति।।
ऐसे व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य नहीं बन सकते:
- जिसने शासन को अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो।
- यदि कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया हो तो उसके खुद के अतिरिक्त उससे रक्त से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सात पीढ़ियों तक अयोग्य रहेगा।
- जिसने अपने कर ना चुकाए हों।
- गृहस्त रह कर पर स्त्री गमन का दोषी।
- हत्यारा, मिथ्या भाषी और नशाखोर।
- जिस किसी ने दूसरे के धन का हनन न किया हो।
ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो ३६० दिनों का ही रहता था परंतु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। उस समय के लोगों की प्रशासनिक एवं राजनैतिक सूझ-बूझ का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि लोक सेवकों के लिए वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में आचरण के लिए आदर्श मानक निर्धारित थे।
ग़लत आचरण के लिए जुर्माने की व्यवस्था बनाई गयी थी। जुर्माना ग्राम सभा ही लगाती थी और जिसे भी यह सज़ा मिलती, उसे दुष्ट कह कर पुकारा जाता।
जुर्माने की राशि प्रशासक द्वारा उसी वित्तीय वर्ष में वसूलना होता था अन्यथा ग्राम सभा संज्ञान लेते हुए स्वयं मामले का निपटारा करती। जुर्माने की राशि के लेने में देरी किए जाने पर विलंब शुल्क भी लगाया जाता था। निर्वाचित सदस्य भी ग़लतियों के लिए जुर्माने के भोगी बन सकते थे।
शिलालेखों से पता चलता है कि स्वर्ण या स्वर्ण आभूषणों के व्यवसाय को पारदर्शी बनाए रखने के लिए स्वर्ण के परीक्शण कि व्यवस्था बनाई गयी थी. इसके लिए एक १० सदस्यों वाली समिति होती थी जो स्वर्ण तथा उससे बने आभूषणों को सत्यापित करती थी। ३ माह में एक बार ग्राम सभा के सम्मुख उपस्थित होकर इस समिति को शपथ लेना होता था कि उन्होने कोई भ्रष्ट आचरण नहीं किया है। इसी तरह अलग अलग कार्यों के लिए समितियों का गठन किया जाता था जैसे, जल आपूर्ति, उद्यान तथा वानिकी, कृषि उन्नयन आदि आदि. और ऐसे हर समिति के लिए अलग से दिशा निर्देश भी दिए गये है।
सार्वजनिक विद्यालयों में व्याख्यताओं की नियुक्ति के भी नियम थे. अनिवार्य रूप से वे शास्त्रों, वेदों आदि के ज्ञाता रहते थे और सदैव बाहर से ही बुलाए जाते थे।
एेसी व्यवस्था अब क्यों नहीं ?
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