लोकतंत्र जिसका शाब्दिक अर्थ "लोगों का शासन", संस्कृत में लोक, "जनता" तथा तंत्र, "शासन" !
लेकिन मैं अपने देश के लोकतंत्र को निर्वाचित राजशाही कहता हूं। लोकतांत्रिक होने को दावा करना एक फैशन हो गया है।
लोकतंत्र की उदारवादी परंपरा में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, धर्म निरपेक्षता और न्याय जैसी अवधारणाओं का प्रमुख स्थान रहा है।
लोकतंत्र में आवाम अपने शासकों से संरक्षण की अपेक्षा रखती हैं एंव अपेक्षा करती है कि वह सामान्य हित का काम होगा।
यदि लोकतांत्रिक अधिकार कागज के पन्नों अथवा संविधान के अनुच्छेदों तक ही सीमित रहे तो उन अधिकारों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सामान्य लोगों द्वारा उन अधिकारों का वास्तविक उपभोग किया जाना आवश्यक है। लेकिन यह उपभोग भी तभी संभव है जबकि व्यक्ति स्वतंत्र और समान हो।
मेरे अनुसार पूंजीवादी लोकतंत्र का आधार एक ऐसी आर्थिक प्रणाली होती है जिसमें उत्पादन के साधन हमेशा पूंजीपति वर्ग के नियंत्रण में होते हैं। यही पूंजीपति वर्ग अपनी धन-शक्ति के बल पर राजनीतिक व्यवस्था की नियंत्रण में रखकर सरकार और राज्य-तंत्र को अपने अधीन रखता है।राज्य सत्ता, अधिकार और विशेषाधिकार पूर्णतः उसी वर्ग के पास होते हैं राज्य का अधिकारी वर्ग, न्यायालय और पुलिस बल भी तटस्थ न होकर प्रभुता-सम्पन्न वर्ग के ही हित साधक होते हैं।
इसलिए, हमारे देश के लोकतंत्र ने एक ऐसी शासन-प्रणाली का रूप अख्तियार कर लेता है जो शासक वर्ग की सत्ता और विशेषाधिकार को बढ़ावा देने और उच्च वर्ग के हितों को साधने के काम आता है।
इसलिए, हमारे देश के लोकतंत्र ने एक ऐसी शासन-प्रणाली का रूप अख्तियार कर लेता है जो शासक वर्ग की सत्ता और विशेषाधिकार को बढ़ावा देने और उच्च वर्ग के हितों को साधने के काम आता है।
आज हमारे देश में लोकतंत्र नहीं अधिनायक-वाद मौजुद है
कई लोग लोकतंत्र के प्रशंसा-गीत गाते रहते हैं कि इसमें सभी नागरिक बराबर होते हैं । क्या वास्तव में है ?
सिर्फ आैर सिर्फ मतदान के समय सभी बराबर होते हैं । सभी लाइन में लगते हैं और नंबर आने पर ही मत डालते हैं । विशिष्ट/अतिविशिष्ट जन भी उसी लाइन में लगते हैं । किंतु वोट डालने के बाद गैर बराबरी वापस लौट आती है । चुने गये राजनेता आम आदमी नहीं रह जाते हैं । उनके लिए सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ विशेष होता है जिनको पाने का सपना भी आम आदमी नहीं देख सकता ।
असीमित भ्रष्टाचार, जाति-धर्म की गिरी हुई राजनीति एवं प्रशासन में भाई-भतीजावाद जोरो शोरो से चल रहा है। क्या इसे लोकतंत्र कह सकते है, क्या यह अधिनायक-वाद नहीं है ?
लोकतंत्र के शत्रु यह ये
- वंशवाद, परिवारवाद, कारपोरेटवाद
- भ्रष्टाचार
- मजहबी कानून
- आतंकवाद एवं हिंसा
- प्रेस पर रोक
- अशिक्षा एवं निरक्षरता
मै सरकार चलाने वालों को मैं तीन वर्गों में बांटता हूं
प्रथम - महाराजाधिराज जिसमें राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री शामिल किए जा सकते हैं ।
द्वितीय - महाराजा जिसमें राज्यपाल, मुख्यमंत्री सरीखे राजनेता सम्मिलित किए जा सकते हैं ।
तृतीय - राजाओं का जिसमें मंत्रियों को गिना जा सकता है ।
अन्य जनप्रतिनिधियों को मैं दरवारी कहता हूं जो राजा की कृपा पाने में प्रयासरत रहते हैं । उन्हें राजा का साथ देना होता है, बदले में राजा उन्हें विविध तरीकों से उपकृत करता है । उनके लिए राजा का विरोध करना वर्जित रहता है । जो दरवारी नहीं बन पाते हैं उन्हें अगली बार के राजा की प्रतीक्षा रहती है ।
इनको मैं राजा-महाराजा क्यों कहता हूं ?
इसलिए कि वे राजा-महाराजाओं वाली सुख-सुविधाओं के हकदार होते हैं। सुरक्षा के नाम पर इनके लिए इंतजामात देखिए। पुलिस-बल की पूरी ताकत इनके लिए तैनात रहती है। मरणासन्न मरीज का एंबुलेंस तक उनके रास्ते में नहीं आ सकता है। उनके रोगों के इलाज के लिए सर्वोत्तम अस्पताल/चिकित्सक रातदिन उपलब्ध रहते हैं । इलाज भी मुफ्त में, वे जब चाहें विदेश जा सकते हैं, अपनी गांठ का धेला खर्च किए बिना । मुफ्त का मकान, बिजली-पानी चौबीसों घंटे।
लोकतंत्र के ऐसे राजा-महाराजा जब अपनी दौरे पर निकलते हैं तो रातों-रात सड़कें समतल हो जाती हैं, सड़कों से कूड़ा गायब हो जाता है, बदबदाती नालियां साफ हो जाती है और न जाने क्या-क्या नहीं हो जाता है । एक व्यक्ति के लिए इतना सब प्रजा के लिए क्यों नहीं ?
आम आदमी सोच सकता है ऐसे विशेषाधिकार की ? इन्हें राजा न कहूं तो क्या कहूं ?
आप खुद सोचे क्या हमारे देश में लोकतंत्र है ????
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