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14 August 2016

भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर शुभकामना व्यक्त करने की परंपरा है क्या यह सही है ?

परन्तु .... 
इस अवसर पर प्रसन्नता व्यक्त करने और देश के भविष्य के प्रति आशान्वित होने का कोई विश्वसनीय आधार मुझे कहीं नहीं दिखता । देश की जो निराशाप्रद स्थिति मुझे ओर आमजन को वर्षों से दिखती आ रही है, उसकी ओर मेरा ध्यान इस मौके पर कुछ अधिक ही चला जाता है । 

मुझे लगता है कि आंख मूंदकर खुश होने के बजाय देशवासियों को थोडी गंभीरता से अपनी राजनैतिक उपलब्धियों पर विचार करना चाहिए ।
  
स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या 69 वर्ष पूर्व हासिल की गयी स्वाधीनता का उपयोग हम एक स्वस्थ एवं जनहित पर केंद्रित लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने में कर पाये ?

भारतीय संविधान कहता है :
WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved constitute India into a Sovereign Secular Democratic Republic and to secure to all its citizens 

JUSTICE …
LIBERTY …
EQUALITY …
FRATERNITY …
 
IN OUR CONSTITUENT ASSEMBLY this 26th day of November, 1949, do Hereby Adopt, Enact, and give to ourselves this constitution.

(SECULAR ‘kCn 1976 ds 42osa la’kks/ku esa tksM+k x;k A)

मैं इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के बाबत कुछ प्रश्न उठाता हूं  - 
हमारी तत्संबंधित उपलब्धियां क्या हैं ?
  
मिसाइल तकनीकी, परमाणु परीक्षण, उपग्रह प्रक्षेपण और चंद्रयान अभियान या अन्य विकास कार्यों को मैं लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बेहतरी के संकेतक नहीं मानता । 
ऐसे विकास कार्य तो राजशाही, तानाशाही, लोकशाही अथवा किसी भी अन्य शासकीय तंत्र में होते ही रहते हैं । हर एक तंत्र में शासक अपने को मजबूत करने में लगा ही रहता है । 

मेरे सवाल सीधे-सीधे अपने लोकतंत्र से जुड़े हैं कि क्या उसकी गुणवत्ता उत्तरोत्तर बढ़ी है; क्या वह आम-जन की आकांक्षाओं के अनुरूप है। 

चलिए इन सवाल पर विचार करें कि कहा है लोकतंत्र -

मूल भावना का अभाव

हमने बहुदलीय शासन पद्धति स्वीकारी है, जिसके अनुसार व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी राजनैतिक दलों को प्राप्त हुई है । 
उनसे अपेक्षा रही है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करेंगे, बल्कि उसकी मर्यादाओं का पूर्णतः सम्मान करेंगे  लेकिन ... 
जिन दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं उन्होंने ही लोकतांत्रिक प्रणाली का दायित्व संभाल रखा है । क्या इसमें विरोधाभास नहीं है ? 

आज के प्रमुख दलों में कितने हैं जो  कह सकें कि उनके यहां आंतरिक लोकतंत्र है ?  
हर एक दल किसी न किसी व्यक्ति अथवा उसके परिवार की निजी राजनैतिक जागीर बना हुआ है और उसके कार्यकर्ता तोते की भांति मुखिया के कथनों को उच्चारित करना अपना धर्म मानते हैं ।

सत्ता हथियाने की होड़ -  सत्ता हथियाना ही सभी दलों का एकमात्र लक्ष्य बन चुका है।  सत्ता प्राप्ति के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की निति अपनी पडे चुक नहीं करते। झूठ जिसे आप धोखा कहे करने से नहीं चुकते।


सत्ता क्यों चाहिए इनको  ?  देश का स्वरूप आने वाले  सालों में क्या होगा इसके चिंतन से प्रेरित होकर सत्ता नहीं पाना चाहते । देश की कोई भावी तस्वीर उनके मन में नहीं उभरती , बल्कि उनकी नजर पांच साल सत्ता पर रहती है कि कैसे वे भरपूर सत्तासुख भोगें और और सत्ता से तमाम सही-गलत लाभ बटोर सकें। 
यही वजह है कि उनके पास देश के लिए कोई  नीतियां नहीं हैं, और न ही वे किसी सिद्धांत पर टिके रहते हैं। चुनाव में जिसका विरोध करें उसी से हाथ मिलाकर सत्ता पर बैठने से कोई नहीं हिचकता है । हर प्रकार का समझौता, हर प्रकार का गठबंधन उन्हें स्वीकार्य है, बशर्ते कि वह उनके निजी हित में हो।   देशहित से कोई लेना देना नहीं है।  

क्षेत्रीय दलों का उदय क्यों

जोड़तोड़ से सत्ता में भागीदारी पाने, और अपनी शर्तों पर दूसरे दलों से मोलभाव करने की क्षमता बटोरनेे के लिए क्षेत्रीय दलों का तेजी से उदय हुआ।  क्या यह लोग देश के बारे में सोचेगे।।

स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक ऐसे दलों का जन्म नहीं  हुआ था। डी.एम.के पहला ऐसा दल था जो क्षेत्रीय दल के रूप में हिंदी विरोध के साथ जन्मा था ।
अन्य दल बाद में ही उभरे जब नेताओं को लगने लगा कि इस रास्ते से उनकी कीमत बढ़ जाएगी।  इन दलों ने केंद्र की सत्ता को कमजोर ही किया । हाल के समय में गठबंधन-धर्म जैसा शब्द गढ़ा गया और राष्ट्रधर्म को दरकिनार कर इस धर्म को अहमियत मिलने लगी । 
इन दलों ने कुछ भी करने की छूट की शर्त पर गठबंधन बनाए रखने की घातक परंपरा को जन्म दिया है । 
क्या यही स्वस्थ लोकतंत्र है ?  क्या यह राजधर्म है ?   
क्या यह राष्ट्र भक्त है ?

अहंकारग्रस्त सांसद-विधायक
जनता के द्वारा बतौर प्रतिनिधि के चुन लिए जाने के बाद हमारे राजनेता स्वयं को पांच-साल का राजा समझने लगते हैं ।

सरकार चलाने वालों को मैं तीन वर्गों में बांटता हूं :

प्रथम वर्ग : महाराजाधिराज जिसमें राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री शामिल किए जा सकते हैं ।

द्वितीय वर्गमहाराजा जिसमें राज्यपाल, मुख्यमंत्री सरीखे राजनेता सम्मिलित किए जा सकते हैं ।

तृतीय वर्ग : जिसमें मंत्रियों को गिना जा सकता है ।

अन्य जनप्रतिनिधियों में से कुछ को मैं दरबारी कहता हूं जो राजा की कृपा पाने में प्रयासरत रहते हैं, उन्हें राजा का साथ देना होता है, बदले में राजा उन्हें विविध तरीकों से उपकृत करता है।  उनके लिए राजा का विरोध करना वर्जित रहता है । जो दरवारी नहीं बन पाते हैं उन्हें अगली बार के राजा की प्रतीक्षा रहती है।
इनको मैं राजा-महाराजा क्यों कहता हूं

  • इसलिए कि वे राजा-महाराजाओं वाली सुख-सुविधाओं के हकदार होते हैं । सुरक्षा के नाम पर इनके लिए इंतजामात देखिए। पुलिसबल की पूरी ताकत इनके लिए तैनात रहती है। 
  • मरणासन्न मरीज की एंबुलेंस तक उनके रास्ते में नहीं आ सकती है। उनके रोगों के इलाज के लिए सर्वोत्तम अस्पताल/चिकित्सक रातदिन उपलब्ध रहते हैं । इलाज भी मुफ्त में । 
  • वे जब चाहें विदेश जा सकते हैं, अपनी गांठ का धेला खर्च किए बिना । मुफ्त का मकान, विजली-पानी चौबीसों घंटे। 
  • लोकतंत्र के ऐसे राजा-महाराजा जब अपनी दौरे पर निकलते हैं तो रातों-रात सड़कें समतल हो जाती हैं, सड़कों से कूड़ा गायब हो जाता है, बदबदाती नालियां साफ हो जाती है, और न जाने क्या-क्या नहीं हो जाता है। 
एक व्यक्ति के लिए इतना सब प्रजा के लिए क्यों नहीं ? आम आदमी सोच सकता है  ऐसे विशेषाधिकार की ?  

इन्हें राजा न कहूं तो क्या कहूं ?

इनमें विनम्रता तो उनमें मुश्किल से ही मिलेगी । वे किसी भी विषय पर जनता की राय जानने के लिए क्षेत्र में नहीं जाते हैं, क्योंकि वे उनको अपना दास समझने लग जाते है।  इन लोगो के लिए दल के मुखिया की बात ही मायने रखती है । 
जब वे अपने हितों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाते हैं और जनता विरोध करती है तो अहंकार के साथ कह देते हैं कि हम चुनकर आए हैं । हिम्मत हो तो आप भी चुनकर आओ हमें रोक लो । मतलब यह कि हम अब राजा हैं और अपनी मरजी से चलेंगे । नेताओं की ऐसी सोच कभी भी लोकतंत्र के अनुरूप नहीं कही जा सकती है । 
हिम्मत तो उन्हें होनी चाहिए कि अपने मतदाताओं के बीच जाकर उनके विचार जानें । ऐसा वे कभी नहीं करते । कहना ही पड़ेगा कि मेरे मन में उनके प्रति सम्मान नहीं उपज पाता है ।

सेक्यूलरिज्म का ढिंढोरा

सेक्यूलरिज्म, जिसे हिंदी में धर्मनिरपेक्षता कहते है , का  अर्थ क्या होते हैं यह शायद ही किसी राजनेता को मालूम हो।  यह शब्द वे तोते की तरह बिना सोचे-समझे कही भी बोल देते हैं । 

यह शब्द यूरोपीय देशों में गढ़ा गया जहां शासकीय व्यवस्था को ईसाई धर्म के प्रभाव के मुक्त करने का अभियान चला था । इसलिए वहां इस विचारधारा ने जन्म लिया कि लोकतंत्र में धर्म का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं, और शासन के नियम-कानून में देश और समाज के  हित के अनुसार बनने चाहिए न कि किसी धर्म के अनुसार । 

नेहरू-अंबेडकर ने हिन्दू भावना के विरुद्ध हिन्दू कोड बिल पारित करवाया कॉमन सिवल कोड देश में लागू नहीं किया  संविधान के दिशानिर्देशक सिद्धांतों के होते हुए भी यह कभी होगा नहीं । 

हमने ‘सेक्युलर’ शब्द का आयात का तो कर लिया, किंतु उसकी भावना अपनाई नहीं।

यह देश मल्टीरिलीजस या बहुधर्मी है न कि धर्मनिरपेक्ष, क्योंकि हमारे कुछ कानून धर्मसापेक्ष ही हैं। 
फिर कैसे हम स्वयं को सेक्युलर कहें । 

अल्पसंख्यकवाद

इस देश में सेक्युलर का व्यावहारिक अर्थ अल्पसंख्यक हितों की बात करना हो चुका है । बहुसंख्यकों की चर्चा करना सेक्युलर न होना समझा जाता है । 
जब भी अल्पसंख्यक शब्द राजनेताओं के मुख से निकलता है तो उनका इशारा प्रायः मुस्लिम समुदाय से ही होता है। देश में सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी भी अल्पसंख्यक हैं,  परंतु उनकी बात शायद ही कभी कोई राजनेता करता है ।

  सबसे कमजोर आर्थिक एवं शैक्षिक दशा में होने के बावजूद मुस्लिम समुदाय चुनावी नजर से अत्यधिक अहम समुदाय है, क्योंकि वह चुनाव परिणामों में उलटफेर कर सकता है । उनकी इसी ताकत को देखते हुए हमारे कई राजनैतिक दलों की नीति उनके हितों की जबरन बातें करती रही है । उनको अपने पक्ष में करने के लिए वे हर चारा उनके सामने डालते आ रहे हैं, और उन्हें वोट बैंक के रूप में देखते हैं । 
उनके वास्तविक हितों में शायद ही किसी की दिलचस्पी होगी। मुझे तो पूरा संदेह है कि ये लोग कभी नहीं चाहेंगे कि वे कभी ऊपर उठें और प्रलोभनों से मुक्त हो पाएं। इस प्रकार का घटिया अल्पसंख्यकवाद मेरी नजर में लोकतंत्र के विरुद्ध है।

नेतागण – अनुकरणीय दृष्टांतों का अभाव

हमारे राजनेताओं का अहंकार तब खुलकर सामने आता है जब वे कानूनों का उल्लंघन करने से नहीं हिचकते हैं । वे अदालतों के आदेशों/निर्देशों की अवहेलना करने से भी नहीं चूकते है । वे भले ही मुख से न बोलें, किंतु उनका इशारा इस ओर सदैव रहता है कि उन्हें कानूनों के ऊपर होने का ‘विशेषाधिकार’ होना चाहिए, क्योंकि वे अपने आप को किसी राजा से कम नहीं समझते  हैं । 

बढ़ता भ्रष्टाचार और लचर न्याय प्रणाली

कोई यह दावा कर सकता है कि समय बीतने के साथ देश में भ्रष्टाचार घटा है ? 
शायद ही कोई सरकारी विभाग हो जहां उल्टे-सीधे काम न होते हों, लेकिन दंडित कोई नहीं होता । यह राजनेताओं समेत सभी मानते हैं कि भ्रष्टाचार बढ़ा है।  
दरअसल हमारी न्यायप्रणाली है ही ऐसी कि आरोपी को बचाने के लिए उसने तमाम रास्ते दिए हैं । रसूखदार व्यक्ति किसी न किसी बहाने मामले को सालों लटका लेता है और दंड से बच जाता है । क्या यही अपने लोकतंत्र से अपेक्षित है ?

लोकपाल, आरटीआई, एवं आपराधिक राजनीति

हमारे देश के मौजूदा राजनेता भ्रष्टाचार के प्रति कितने संजीदा हैं यह उनके लोकपाल के मामले को टालने एवं आरटीआई से अपने दलों को मुक्त रखने के इरादे से स्पष्ट है । 
इसी प्रकार वे राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध भी कारगर उपाय नहीं अपनाना चाहते हैं । जिन आपराधिक छवि के नेताओं के बल पर वे सत्ता हासिल करते आ रहे हैं आज उन्हें वे बचाने की जुगत में लगे हैं ।  समय के साथ आपराधिक छवि के लागों की पैठ जो शुरू हुई तो आज संसद तथा विधानसभाओं में उनका बोलबाला दिखाई देता है । 
जब ऐसे नेता और उनको बचाने वाले नेता संसद में तो अपराधमुक्त राजनीति कहां से आएगी ? इसे देश का दुर्भाग्य न कहें तो क्या कहें ?

चुनावी एवं प्रशासनिक सुधार

मुझे अब विश्वास हो चला है कि हमारे नेता ऐसे कोई उपाय नहीं करना चाहते हैं जो लोकतंत्र को मजबूत करे पर उनकी मनमर्जी पर अंकुश लगाए। मैं अब मानता हूं कि उनमे परस्पर यह मुक सहमति बनी है कि ऐसे किसी भी कानून का हममें कोई न कोई किसी न किसी बहाने विरोध करता रहेगा ताकि वह कानून पास न हो सके । 
ऊंची-ऊंची बातें होती रहती हैं लेकिन ठोस कुछ किसी को नहीं करना है । यही वजह है कि चुनाव, न्याय-व्यवस्था, सामान्य प्रशासन, तथा पुलिस तंत्र में सुधार आज तक नहीं हुए हैं और न आगे होने हैं । क्या यही हमारी उपलब्धि है ?

स्वतंत्रता का अर्थ यानि अनुशासनहीनता

अंत में ....
क्या ऐसी स्वतंत्रता स्वीकार्य हो सकती है जिसमें व्यक्तियों पर किसी प्रकार का प्रतिबंध न हो, जहां मर्यादाएं न हों ? 
बहुत से लोगों के लिए स्वतंत्रता के अर्थ हैं अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, जो मर्जी वह करने का अधिकार, कानूनों का उल्लंघन, आदि । 

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