इसे नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल कहते है छोटे रुप में एन.जी.टी कहते है।
18 अक्टूबर 2010 को एक अधिनियम के द्वारा पर्यावरण से संबंधित कानूनी अधिकारों को लागू करने एंव व्यक्तियों और संपत्तियों के नुकसान के लिए सहायता और क्षतिपूर्ति देने के लिए यह ट्रिब्यूनल बनाया गया।
नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल का कार्य पर्यावरण, रक्षा, वनो का संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित मामलों को प्रभावी और जल्द निपटारे किए जाते है। इससे जुडी क्षतिपूर्ति या लोगो को हुए नुकसान आदि के बारे में ही निर्णय लिए जाते है।
यह ट्रिब्यूनल सिविल प्रोसीजर कोड 1908 के अंतर्गत तय प्रक्रिया द्वारा बाधित नहीं है, बल्कि यह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों द्वारा निर्देशित है। इसका मुख्य केंद्र दिल्ली में है। इसकी चार क्षेत्रीय शाखाए पुण, भोपाल, मद्रास, और कोलकता में है।
नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी) के चैयरमैन सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत जज होते है। उनके साथ न्यायिक सदस्य के रुप में हाईकोर्ट के सेवानिवृत जज होते है।
नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी) में सिर्फ इन कानून से जुडी बातें को ही चुनौती दी जा सकती है -
- जल (रोक और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम, 1974 एंव उपकर कानून 1977)
- वन संरक्षण कानून 1980
- वायु (रोक और प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1981)
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986
- पब्लिक लायबिलिटी इंश्योरेंस कानून 1991
- जैव विविधता कानून 2002
वन्य जीव संरक्षण कानून 1972, भारतीय वन कानून 1927 और राज्य द्वारा जंगल और पेड की रक्षा के कानून एन.जी.टी. के क्षेत्राधिकार में नहीं आते है।
उच्चतम न्यायालय में या उच्च न्यायालय में जनहित याचिका या सिविल सूट लाए जा सकते है।
नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी) में आवेदन काने का तरीका बहुत ही सरल है। क्षतिपूर्ति के मामलों में दावे की रकम का 1 प्रतिशत राशि अदालत में जमा करनी होती है परन्तु जिन मामलों में क्षतिपूर्ति की बात नहीं होती है उसमें मात्र एक हजार रुपये फीस ली जाती है।
आदेश और निर्णय देते समय नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी) टिकाउ विकास की ओर ध्यान देता है तथा पर्यावरण से जुडी सावधानियां बरतने की कोशिश करता है। यह संस्था मानती है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले इसकी भरपाई भी करे। कानून की सही जानकारी हो तो नेशलन ग्रीन ट्रिब्यूनल (एन.जी.टी) में कोई भी अपना मुकदमा स्वयं लड़ सकता है।
सजा के प्रवाधान -
आदेश को नहीं माना जाए तो तीन साल की कैद या दस करोड रुपये तक का दंड या ये दोनो हो सकते है। ट्रिब्यूलन के बनने के बाद इसके अधिकार क्षेत्र के मामले दूसरी सिविल अदालतों में नहीं ले जा सकते है।
भारतीय संविधान में 1976 में संशोधन के द्वारा दो महत्वपूर्ण अनुच्छेद 48(ए) (राज्य सरकार को निर्देश देता है) तथा 51(ए) (बतलाता है कि नागरिकों का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा करें तथा सभी जीवधारियों प्रति दया का भाव रखें) जोडे गये है।
यह बताना भी अति आवश्यक है कि जनहित याचिका की मदद से पर्यावरण को बचाने के अनेक प्रयास किए गए।
ट्रिब्यूलन और कोर्ट में क्या फर्क है -
ट्रिब्यूलन यानी एक विशेष कोर्ट।
यह क्षेत्र विशेष संबंधी मामलों को ही लेता है। कोर्ट में अनेक मामले आते है जो विविध विषय पर आधारित होते है।
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