भारत में जाति सर्वव्यापी तत्व है - सनातन धर्म के कहलाने वालो को आज हिन्दु कहा जाने लगा है। सनातन धर्म ही सब धर्मों का मूल है यानि लगभग सारी प्रेरणा इससे ही ली गई है।
ईसाइयों, मुसलमानों इनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध-अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है।
यहा बात सिर्फ हिन्दू जातियों की इसलिए होती है, क्योंकि हिन्दूस्तान में हिन्दू बहुसंख्यक हैं और जातियों में फूट डालकर या जातिवाद को बढ़ावा देकर ही सत्ता हासिल की जा सकती है।
" वैसे भी आजकल हमारे देश में जो जितना ज्यादा झूठ बोलता है वह सत्ता हासिल करता है। इसे ही धोर कलयुग कहा गया है, इस कलयुग के लिए गोपी फिल्म जो 1970 में बनी थी उसमें श्रीमद् भागवत गीता "Shrimad Bhagwat Puran " से लेकर जो बोला गया है - इसमें कितनी सच्चाई है आप स्वंय ही सुन सकते है। बोल सुनने के लिए यहा क्लिक करे - गीत
" वैसे भी आजकल हमारे देश में जो जितना ज्यादा झूठ बोलता है वह सत्ता हासिल करता है। इसे ही धोर कलयुग कहा गया है, इस कलयुग के लिए गोपी फिल्म जो 1970 में बनी थी उसमें श्रीमद् भागवत गीता "Shrimad Bhagwat Puran " से लेकर जो बोला गया है - इसमें कितनी सच्चाई है आप स्वंय ही सुन सकते है। बोल सुनने के लिए यहा क्लिक करे - गीत
देश की स्वतंत्रा सन्1947 तक नारा था -
हिन्दु , मुस्लिम, ईसाइ है सब भाई-भाई ,
नेहरु ने नारा बनाया - हिन्दु , मुस्लिम, सिख, ईसाइ भाई-भाई। सिख जोड दिया।
इंदिरा ने नारा बनाया - हिन्दु , मुस्लिम, सिख, ईसाइ , बौद्ध भी है हमारे भाई। बौद्ध जोड दिया।
राजीव गांधी ने नारा बनाया - हिन्दु , मुस्लिम, सिख, ईसाइ ,बौद्ध जैन भी है हमारे भाई। जैन जोड दिया।
इस तरह से इस परिवार " जिसकी न अपनी कोई जाति थी न कोई धर्म था गिरगिट की तरह समय-समय पर अपना धर्म आैर सरनेम बदलते रहे है " ने मात्र अपनी राजनीतिक बरकरार रखने के लिए दुष्ट चाले चल हिन्दुओं को आपस में बांटकर रखने में ही भलाई नजर आती रही।
इस तरह मिला जाति को बढ़ावा :
दो तरह के लोग होते हैं - अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह कि दो तरह के क्षेत्र होते हैं - विकसित और अविकसित।
पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना कि दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति।
पिछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया , लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति की सोच बदल गई। राजनीति पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई।
हमारे पूर्वजों ने इस तरह बांटा था धर्म और जातियों में…
वैदिक काल में वंश पर आधारित समाज थे -
1. सूर्य वंश 2. चंद्र वंश और 3. ऋषि वंश।
उक्त तीनों वंशों के ही अनेक उप वंश हुए-
1. अग्नि वंश और इक्ष्वाकु वंश सूर्य वंश के अंतर्गत हैं। सूर्य वंशी प्रतापी राजा इक्ष्वाकु से इक्ष्वाकु वंश चला। इसी इक्ष्वाकु कुल में राजा रघु हुए जिसने रघु वंश चला।
2. यदु वंश, सोम वंश और नाग वंश तीनों चंद्र वंश के अंतर्गत माने जाते हैं।
भगवान राम जहां सूर्य वंश से थे, वहीं भगवान श्रीकृष्ण चंद्र वंश से थे। ऋषि वशिष्ठ ने भी एक अग्नि वंश चलाया था।
3. ऋषि वंश: इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, कृतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष, कर्दम, विश्वामित्र, पराशर, गौतम, कश्यप, भारद्वाज, जमदग्नि, अगस्त्य, गर्ग, विश्वकर्मा, शांडिल्य, रौक्षायण, कपि, वाल्मीकि, दधीचि, कवास इलूसू, वत्स, काकसिवत, वेद व्यास आदि ऋषियों के वंश चले, जो आगे चलकर भिन्न-भिन्न उपजातियों में विभक्त होते गए।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये कोई जातियां नहीं हैं और न ही ये किसी वंश का नाम हैं। ये शास्त्रों में श्रम विभाजन की श्रेणियां हैं। परन्तु आज राजनिति में मौजुद धटिया लोगों ने इसे जाति का रुप दे दिया है।
इसलिए ही तो कहते है कि धर्म का नाशा धर्म के जानकारों की निष्क्रियता के कारण होता है।
इसलिए ही तो कहते है कि धर्म का नाशा धर्म के जानकारों की निष्क्रियता के कारण होता है।
लेकिन आज गंदे धटिया राजनितिज्ञों ने समाज को बदलकर हिन्दू धर्म को खंडित कर दिया हैं।
उक्त तीनों ही वंशों से ही - ब्राह्मणों , क्षत्रियों , वैश्यों , दलितों के अनेक उपवंशों का निर्माण होता गया। उक्त वंशों के आधार पर ही भारत के चारों वर्णों के लोगों के गोत्र माने जाते हैं। गोत्रों के आधार पर भी वंशों को समझा जाता है।
भारत में रहने वाले सभी "कोई भी जाति से हो" किसी न किसी भारतीय वंश से ही संबंध रखते हैं इसीलिए उन्हें भारतवंशी कहा जाता है।
यदि जातियों की बात करें तो लगभग सभी द्रविड़ जाति के हैं। आर्य कोई जाति नहीं थी। आर्य तो वे सभी लोग थे, जो वेदों में विश्वास रखते हैं।
बदलती जातियां :
बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं, जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं, ईसाई हैं या अब वे बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं, जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। हजारों वर्षों के कालक्रम के चलते क्षत्रियों की कई जातियां अब दलितों में गिनी जाने लगी हैं। आजकल तो कोटे का लाभ लेने के लिए कुछ लोग अपनी ऊंची जातियां छोड़ने को तैयार हैं।
प्राचीन जातियां :
प्राचीनकाल में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत में कई तरह की जातियां थीं जिनमें देव, असुर, किन्नर, यक्ष, रक्ष, वानर, मल्ल, किरात, निषाद, रीछ, दानव, गंधर्व, नाग, मानव आदि थे।
पहले नहीं होते थे उपनाम यानि सरनेम :
इंद्र, वृत्त, शंभर, गार्गी, कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, दुर्योधन, अत्रि, एकलव्य, हनुमान, रावण आदि ऐसे हजारों चर्चित लोग रहे हैं, जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं।
इंद्र, वृत्त, शंभर, गार्गी, कृष्ण, कौत्स, चार्वाक, राम, अर्जुन, दुर्योधन, अत्रि, एकलव्य, हनुमान, रावण आदि ऐसे हजारों चर्चित लोग रहे हैं, जो बिना जातिगत सरनेम के ही आज तक प्रसिद्ध हैं।
फिर सरनेम और उपनाम की शुरुआत किसने और कब से की ?
सरनेम की शुरुवात ब्रिटिश हुकुमत के दौरान हिन्दुओं को विभाजित रखने के उद्देश्य से हुई थी।
ब्रिटिश राज में हिन्दुओं को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। हिन्दुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाम देकर स्पष्ट तौर पर जातियों में बांट दिया।
इतना ही नहीं, 1991 की जनगणना में केवल मोची की ही लगभग 1,156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होंगी।
भारत में तो उपनामों का समंदर है। अनगिनत उपनाम हैं जिन्हें लिखते-लिखते शायद सुबह से शाम तो क्या कई दिन हो जाए।
यदि उपनामों पर शोध करने लगें तो कई ऐसे उपनाम हैं, जो हिन्दू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल, भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है।
परिणाम यही आत की - मात्र सत्ता की भुख
यदि उपनामों पर शोध करने लगें तो कई ऐसे उपनाम हैं, जो हिन्दू समाज के चारों वर्णों में एक जैसे पाए जाते हैं। दरअसल, भारतीय उपनाम के पीछे कोई विज्ञान नहीं है।
परिणाम यही आत की - मात्र सत्ता की भुख
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