कभी कभी मै सोचता था कि ” हिन्दु “सनातन धर्म इतना महान और शक्तीशाली था कि पूरे विश्व में उसका डंका बजता था फिर क्या हुआ कि सनातन धर्म ” हिन्दु “ का इतना पतन (नुकसान या हानि ) हो गया क्या कारण था ?
” अंहिसा परमो धर्मः ” श्लोक का प्रचार-प्रसार किया और इस अधूरे श्लोक ने सनातन धर्म ” हिन्दु ” का ” सत्यानाश ” कर डाला। अधूरे श्लोक का परिणाम ये निकला कि ” हिन्दुओं “ने अपने शस्त्र छोड दिए ” शस्त्र विद्या ” का अभ्यास छोड दिया।
"अहिंसा परमो धर्मः "
अर्थात अंहिसा ही परम धर्म है।
इसी अधूरे श्लोक ” अंहिसा परमों धर्मः ” का उपयोग गाॅधी ने किया और भारत के क्रांतीकारी वीरों को दोषी बतला अंग्रेजों को बचाया।
यह अधुरा श्लोक ही बतलाया गया। जिससे इस पूरे श्लोक का अर्थ ही बदल गया। जबकी यह पूरा श्लोक इस प्रकार है -
" अहिंसा परमो धर्मः
धर्म हिंसा तथैव च:।। "
अर्थात - अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और धर्म रक्षार्थ हिंसा भी उसी प्रकार श्रेष्ठ है।
इस श्लोक को गांधी हिन्दु सभा में अधूरा ही पढ़ता था जिससे हिन्दुओ का धार्मिक खून उबल न पड़े। जिससे मुस्लिमों को बचाया जा सके।
सब जानते है कि गांधी मुस्लिमों के पक्ष में था। गांधी वध के कारणों में एक सबसे बडा कारण भी यही था। जिसकी सच्चाई आज सबके सामने आ चुकी है।
आज भी हमारे हिन्दुस्तान में हिंदू विरोधी सरकारे हिन्दुओ को आधा ही श्लोक बताने की शौकीन हैं..
स्पष्ट कारण है हिन्दुओ का शोषण जरी रखा जा सके।
अहिंसा का सच्चा अर्थ गीता में जो कहा गया है -
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।
अर्थात् : " ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है। "
शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है।
आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फ़ौजदारी क़ानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है।
आपातकाल में तो 'प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्' यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं कहा है; किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है।
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।
अर्थात् - " इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है।"
आज के आधुनिक युग में मोटरसाईकल, कार, बसे, ए.सी, काम में ली जा रही है इनके इंजन से नि कलने वाली तीव्र गर्मी से न जाने कितने जीव मर रहे है।
ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि 'हिंसा मत करो, हिंसा मत करो' तो उससे क्या लाभ होगा ?
अहिंसा का सच्चा तत्त्व जो समझ में आता है -
"जीवो जीवस्य जीवनम्"
इस जगत में कौन किसको नहीं खाता ?
यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है।
आपातकाल में तो "प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्" यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं कहा है, किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है -
यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा ?
यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी ?
सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम–
अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है।
अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं परन्तु ....
सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा?
सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे, उनको जब चाहे मार देगे, सम्पति छिन लेगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रह्लाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है–
"न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
इति तात विजानीहि द्वयमेतदसंशयम् ।।"
"अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः।"
अर्थात् - जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों ही बराबर हैं।'
क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो बिदुला ने यही कहा है किः–
"एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी।
क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान्।।"
अर्थात् - जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरुष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है।'
मेंरे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि -
इस अधुरे श्लोक ” अंहिसा परमो धर्मः ”
का उपयोग छोडो और जागो और धर्म की रक्षा के लिऐ शस्त्र उठाओ।।
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