संघ परिवार का देश आजादी से संघ का कोई लेना देना नहीं रहा॥
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ "आर एस एस " की स्थापना १९२५ मे विजयादशमी के दिन हुई थी उस समय की परिस्थितियों पर नजर डालें तो एक तरफ़ हिंदुत्ववादी लोग हिंदू महासभा के बैनर तले हिंदू संगठन, हिंदुओ के सशक्तिकरण ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ संघर्ष, शुद्धी इत्यादि का कार्य कर रहे थे। तो दूसरी तरफ़ क्रांतिकारी सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे।
इसी बीच केशवराव हेडगेवार ने हिंदू महासभा से अलग होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बना लिया जिसका काम था हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओ को हिंदू महासभा ज्वाइन करने से रोकना तथा क्रांतिकारियों को भगत सिंह के रास्ते पे जाने से रोकना।
इस बात के अनेको प्रमाण है जब उस जमाने में सशस्त्र क्रांति करने के इच्छुक लोग केशवभाई के पास हाजि़र होते थे और केशवभाई उन्हे भगत सिंह के रास्ते पर जाने से रोक कर संघ मे शामिल कर लेते थे। और फि़र उनकी ऊर्जा जो कि अंग्रेजों को मारने मे लगती वो रोज सुबह शाखा मे कबड्डी खेलने और बैंड पार्टी के जैसा ढोल बाजे बजाने मे व्यय हो जाती थी। खुद तृतीय सर-संघचालक बालासाहब देओरस ने स्वीकार किया है कि ऐसा उनके साथ घटित हुआ।
हिंदुत्ववादियों को हिंदू महासभा की राजनीति में भाग लेकर हिंदुत्व को मजबूत बनाने से रोककर वो बैंड पार्टी, कबड्डी इत्यादि में व्यस्त रखते थे।
नतीजा ये हुआ कि १९३६ आते आते इस देश में भगत सिंह की विरासत को आगे बढाने वालों का अभाव हो गया और दूसरी तरफ़ हिंदू महासभा के कार्यकर्ता दिन प्रतिदिन कम होते गये।
१९३८ मे सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के प्रेसिडेंट बने और उन्होने कांग्रेस में दोहरी सदस्यता खत्म करवा दी जिसके कारण कांग्रेस के बहुत से नेता जो कि हिंदू महासभा के सदस्य भी थे मजबूरीवश हिंदू महासभा छोड गये। हिंदू महासभा नेता एवं कार्यकर्ताओ के अभाव में कमजोर होती गयी.१९४० मे गुरु घण्टाल गोलवलकर संघ के दूसरे हेड बने।
वो भी युवाओ के राजनीति एवं आंदोलनो में भाग लेने के सख्त विरोधी थे। स्पष्ट रूप से उन्होने कहा कि -१९२० के असहयोग आंदोलन का दुष्प्रभाव ये हुआ कि युवा उद्दंड हो गये और उनमें अनुशासन और आज्ञाकारिता नहीं रही। “१९४२ के भारत छोडो आंदोलन के समय उन्होने आधिकारिक तौर पर संघ को उसमें शामिल नहीं किया जबकि उसके कार्यकर्ता ऐसा चाहते थे। और इस कारण स्वयंसेवकों के मन में काफ़ी आक्रोश भी था। उसी तरह हमेशा युवाओ को मूर्ख बनाकर राजनीति से हमेशा दूर रखा। हिंदू महासभा हिंदुओ को मिलीट्री ट्रेनिंग दिलवाना चाहती थी वहीं आर एस एस बोलता था कि लाठी से काम चला लो। इस बात मे कोई शक नहीं कि आर एस एस के बनने से अगर किसी पार्टी को सबसे अधिक नुकसान पहुचा था तो हिंदू महासभा। क्योंकि हिंदू महासभा से भविष्य के लाखों कार्यकर्ता छिन गये जो कि उसे एक मजबूत राजनैतिक पार्टी बना सकते थे। अगर संघ न होता तो ये लाखों स्वयंसेवक हिंदू महासभा ज्वाईन करते, हिंदू महासभा मजबूत होती और अंग्रेज कांग्रेस और लीग के समकक्ष महत्व विभाजन के समय महासभा को भी देते और शायद विभाजन टल जाता। उसी तरह जब विभाजन की घोषणा हो गयी तो भी संघ ने सरकार का कोई विरोध नहीं किया और युवाओ को राजनीति से दूर रहने की पट्टी पढाकर चतुर्थ श्रेणी के कार्यों मे व्यस्त रखा।
जब देश का बटवारा हो गया और फि़र आजादी मिली, नाथूराम गोडसे ने देश हित व हिन्दुत्तव के लिए गांधी का वध कर दिया। कांग्रेस ने संघ पर बैन लगा फि़र उठा दिया। हिंदू महासभा तबाह हो गयी इन सब घटना के बाद स्वयंसेवकों को अच्छी तरह समझ आ गया कि संघ ने उन्हे किस प्रकार टोपी पहनाई है और वो हिंदू महासभा की राजनीति अथवा भगत सिंह का संगठन ज्वाइन कर लेते तो शायद आजादी जल्दी मिल जाती, देश का बटवारा न होता, पाकिस्तान को ५५ करोड न देने पडते इत्यादि।
उन्होने देखा कि अपनी क्षमताओ का हम राष्ट्रनिर्माण में कोई उपयोग न कर सके और दुश्मन हमारी आंखों के सामने सबकुछ लूट कर ले गये और हम बस अपने गुरुजी की आज्ञा का पालन करने मे व्यस्त रहे।
संघ ने उन्हे राजनीति से जानबूझकर अलग रखा जिसका खामियाजा देश ने भुगता। उसके बाद स्वयंसेवकों का मोह संघ से भंग हो गया और बडे पैमाने पर कांग्रेस विरोधी विकल्प सोशलिस्ट एवं कम्यूनिस्ट पार्टी में जाने लगे। संघ प्रमुख ने देखा कि अब तो हमारी ईंटें समाजवादियों का भवन निर्माण करेंगी। अब इन स्वयंसेवकों को फुसलाने के लिए एक राजतीतिक विकल्प दिखाने कि जरूरत है जिसमे संघ के नेताओ को बैक डोर से इंट्री दिलाई जाए ताकि हिंदुत्ववादियों के लिए एक सेफ़्टी वाल्व बने।
कुल मिलाकर देखा जाए तो जनसंघ की स्थापना के ही पीछे इतना बडा खोट था , इस पार्टी की कभी कोई विचारधारा नहीं रही।
वन्देमातरम्
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