हिमाचल प्रदेश के चंबा जिला के भरमौर में स्थित मणिमहेश को टरकोईज माउंटेन के नाम से भी पुकारा जाता है, जिसका अर्थ है नीलमणि । मणिमहेश भगवान शिव और मां पार्वती का क्रीडा-स्थल है।
एेसी कहा गया है कि भगवान कृष्ण को भगवान शिव ने वरदान दिया था कि आपके जन्मदिन अर्थात जन्माष्टमी पर जो भी आैघड मणिमहेश झील में स्नान करेगा उसकी सभी सिद्धियां सिद्ध हो जायेगी। राधा जी ने भी वरदान मांगा था तो शिव ने राधा को वरदान दिया की राधाष्टमी को किसी भी मनुष्य के मणिमहेश झील में स्नान करने पर सभी मनोरथ पूरे होगे।।
एेसी कहा गया है कि भगवान कृष्ण को भगवान शिव ने वरदान दिया था कि आपके जन्मदिन अर्थात जन्माष्टमी पर जो भी आैघड मणिमहेश झील में स्नान करेगा उसकी सभी सिद्धियां सिद्ध हो जायेगी। राधा जी ने भी वरदान मांगा था तो शिव ने राधा को वरदान दिया की राधाष्टमी को किसी भी मनुष्य के मणिमहेश झील में स्नान करने पर सभी मनोरथ पूरे होगे।।
मणिमहेश यात्रा के प्रमाण सृष्टि के आदिकाल से मिलते हैं।
मणिमहेश यात्रा का आरंभ कृष्ण जन्माष्टमी के प्रथम स्नान से चंबा स्थित श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर में छड़ी मुबारक से होता है। चंबा से हड़सर तक की 81 किलोमीटर की यात्रा सड़क मार्ग से तय करने के बाद हड़सर से मणिमहेश तक की 15 किलोमीटर यात्रा पैदल या फिर घोडे-खच्चरों की सवारी द्वारा तय करनी पड़ती है। यात्रा 13500 फीट ऊंचाई पर स्थित पवित्र मणिमहेश झील पर पहुंचकर संपन्न होती है।
मणिमहेश झील से एक किलोमीटर पीछे गौरीकुंड है, जहां केवल महिलाएं स्नान करती हैं। श्रद्धालु पवित्र मणिमहेश झील में स्नान करने के बाद झील किनारे स्थित शिवलिंग की पूजा अर्चना करके कैलाश पर्वत के दर्शन करते हैं।
दर्शन - जो अत्यंत ही अद्धभुद है , सूर्य देव उदय होने के साथ ही पर्वत पर मणि बन जाती है एंव अलौकिक प्रकाश दिखने लगता है उस प्रकाश से ज्योति निकल कर आसमान की तरफ जाती है फिर से वापस आ कर मणि में लुप्त हो जाती है।
खास बात यह है कि कैलाश के साथ सरोवर का होना सर्वव्यापक है।
तिब्बत में कैलाश के साथ मानसरोवर है
आदि-कैलाश के साथ पार्वती कुंड है
भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर है।
यहां पर भक्तगण सरोवर के बर्फ से ठंडे जल में स्त्रान करते हैं। फिर सरोवर के किनारे स्थापित श्वेत पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति (जिसे छठी शताब्दी का बताया जाता है) पर अपनी श्रद्धापूर्ण पूजा अर्चना अर्पण करते हैं। कैलाश पर्वत के शिखर के ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा-सा शिखर पिंडी रूप में दृश्यमान होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार यह भारी हिमपात होने पर भी हमेशा दिखाई देता है, श्रद्धालु शिव रूप मानकर नमस्कार करते हैं।
इसी प्रकार फागुन मास में प़डने वाली महाशिवरात्रि पर आयोजित मेला भगवान शिव की कैलाश वापसी के उपलक्ष्य में आयोजित किया जाता है।
हमेशा बर्फ से ढके रहने वाले इस पौराणिक पर्वत पर जिसने भी चढने की कोशिश की वह वापस लौट कर नहीं आया है। हालांकि कुछ कैलाशों में पर्वत की चोटी तक यात्रा की जाती है। लेकिन यहां ऎसा संभव नहीं है।आज भी इस पर्वत की चोटी तक पहुंचने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया है।स्थानीय लोगों का कहना है कि पांच कैलाशों में से एक मणिमहेश पर्वत पर जिसने भी चढने की कोशिश की वह पत्थर बन गया।
520 ईस्वी में भरमौर नरेश मरू वर्मा द्वारा भगवान शिव की पूजा अर्चना के लिए मणिमहेश यात्रा का उल्लेख मिलता है।
उस समय मरू वंश के वशंज राजा साहिल वर्मा (शैल वर्मा) भरमौर के राजा थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। एक बार चौरासी योगी ऋषि इनकी राजधानी में पधारे। राजा की विनम्रता और आदर-सत्कार से प्रसन्न हुए इन 84 योगियों के वरदान के फलस्वरूप राजा साहिल वर्मा के दस पुत्र और चम्पावती नाम की एक कन्या को मिलाकर ग्यारह संतान हुई। इस पर राजा ने इन 84 योगियों के सम्मान में भरमौर में 84 मंदिरों के एक समूह का निर्माण कराया, जिनमें मणिमहेश नाम से शिव मंदिर और लक्षणा देवी नाम से एक देवी मंदिर विशेष महत्व रखते हैं। यह पूरा मंदिर समूह उस समय की उच्च कला-संस्कृति का नमूना आज भी पेश करता है।
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