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16 October 2015

कौन है शंकराचार्यां , कौन है नागा साधू ? आज नागा साधूआें की धर्माथ रक्षा हेतु वापसी की जरुरत है।।

कौन है शंकराचार्यां , कौन है नागा साधू ?    इनका हिंदु धर्म का रिशता क्या हैं?   

एक ढोगी जो अपने आप को पंडित कहता था (नेहरु) ने क्या वादा किया था इन नागा साधू से ?

शंकराचार्यां

सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब हिन्दुस्तान के जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। हिन्दुस्तान की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे।  कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ हिन्दुस्तान की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। 
ईश्वर,  धर्म,  धर्मशास्त्रों को तर्क,  शस्त्र  और  शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म के लिए कई कदम उठाए , जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। 
चार पीठ -
१. गोवर्धन पीठ, 
२. शारदा पीठ, 
३. द्वारिका पीठ और 
४. ज्योतिर्मठ पीठ। 

आदिगुरु शंकराचार्य ने अखाडो की शुरुआत क्यों की -

आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना का सुझाव दिया एंव शुरूआत की। 

उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सु.ढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें।  इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा।  आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांव-पेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। 

अखाड़ों को कडा सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे।

नागा साधू कौन है  संक्षेप में जीवन के कई रहस्य -
नागा साधु संन्यासी संप्रदाय से जुड़े साधुओं का संसार और गृहस्थ जीवन से कोई लेना-देना नहीं होता। गृहस्थ जीवन जितना कठिन होता है उससे सौ गुना ज्यादा कठिन नागाओं का जीवन है। 

नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं।ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा की गयी थी।  इनके आश्रम हरिद्वार और दूसरे तीर्थों के दूर-दराज इलाकों में हैं जहां ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं।  इनके गुस्से के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां भी भीड़ को इनसे दूर रखती हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह शायद ही किसी को नुकसान पहुंचाते हों। हां, लेकिन अगर बिना कारण अगर कोई इन्हें उकसाए या तंग करे तो इनका क्रोध भयानक हो उठता है। कहा जाता है कि भले ही दुनिया अपना रूप बदलती रहे लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे। 

नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं।  नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं। ये साधु प्रायः कुम्भ में दिखायी देते हैं। नागा साधुओं को ले कर कुंभ मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है, खासकर विदेशी पर्यटकों में।  

कोई कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात आकाश ही जिनका वस्त्र हो। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। आम तौर पर मीडिया से ये दूरी ही बनाए रहते हैं। 
ज्यादातर नागा साधु पुरुष ही होते हैं,  कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं। 

 प्रस्तुत है नागा से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी।
  1. नागा अभिवादन मंत्र :      ॐ नमो नारायण
  2. नाग साधु के अराधय  शिव है इसके अलावा किसी को भी नहीं मानते।
  3. नागा वस्तुएं :  त्रिशूल,  डमरू,  रुद्राक्ष,  तलवार,  शंख,  कुंडल,  कमंडल,  कड़ा,  चिमटा,  कमरबंध या कोपीन,  चिलम,  धुनी , भभूत आदि।
  4. नागा का कार्य : गुरु की सेवा, आश्रम का कार्य, प्रार्थना, तपस्या और योग क्रियाएं करना।
नागा दिनचर्या : नागा साधु सुबह चार बजे बिस्तर छोडऩे के बाद नित्य क्रिया व स्नान के बाद श्रृंगार पहला काम करते हैं। इसके बाद हवन, ध्यान, बज्रोली, प्राणायाम, कपाल क्रिया व नौली क्रिया करते हैं। पूरे दिन में एक बार शाम को भोजन करने के बाद ये फिर से बिस्तर पर चले जाते हैं।

नागा उपाधियां : चार जगहों पर होने वाले कुंभ में नागा साधु बनने पर उन्हें अलग अलग नाम दिए जाते हैं। 
इससे यह पता चल पाता है कि उसे किस कुंभ में नागा बनाया गया है।

1. इलाहाबाद के कुंभ में उपाधि पाने वाले को नागा,   
2. उज्जैन में  खूनी नागा,  
3. हरिद्वार में बर्फानी नागा तथा
4.  नासिक में उपाधि पाने वाले को खिचडिया नागा कहा जाता है। 

उनकी वरीयता के आधार पर पद भी दिए जाते हैं। कोतवाल, पुजारी,  बड़ा कोतवाल,  भंडारी,  कोठारी, बड़ा कोठारी,  महंत और सचिव उनके पद होते हैं। सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण पद सचिव का होता है।

कठिन परीक्षा : 

नागा साधु बनने के लिए लग जाते हैं 12 वर्ष। नागा पंथ में शामिल होने के लिए जरूरी जानकारी हासिल करने में छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूं ही रहते हैं।

तहकीकात-  जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है।  

अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है। 


महापुरुष-  अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं। 

अवधूत-   महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।

लिंग भंग-  इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है। 

नागा साधूआें के 17 श्रृंगार 

शाही स्नान से पहले नागा साधु पूरी तरह सज-धज कर तैयार होते हैं और फिर अपने ईष्ट की प्रार्थना करते हैं। नागाओं के सत्रह श्रृंगार के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि - 
लंगोट,  भभूत,  चंदन,  पैरों में लोहे या फिर चांदी का कड़ा,  अंगूठी,  पंचकेश,  कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप,  कुंडल,  हाथों में चिमटा,  डमरू या कमंडल,  गुथी हुई जटाएं  तिलक,  काजल,  हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप  और  बाहों पर रूद्राक्ष की माला 17 श्रृंगार में शामिल होते हैं।

नागा साधूआें के नियम -

1- ब्रह्मचर्य का पालन-  कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।

2- सेवा कार्य-  ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।

3- खुद का पिंडदान और श्राद्ध-  दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।

4- वस्त्रों का त्याग-  नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है। 

5- भस्म और रुद्राक्ष-  नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है। 

6- एक समय भोजन-  नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।

7- केवल पृथ्वी पर ही सोना-  नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।

8- मंत्र में आस्था-  दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है। 

9- अन्य नियम-  बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं। 


इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें ४० हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की। 

नेहरु जो मुस्लिम आैर अन्य खुन का मिश्रण था ने हिन्दुस्तान की आजादी के बाद चलाकी से काम लेते हुए साजिश के तहत कसम खा कर नागा साधुओं को संस्.ती एवं धर्म रक्षण आश्वासन के बाद अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। 

इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्.ति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। 
नेहरु ने यह सनातन धर्म (हिन्दुओं) के साथ गद्दारी की थी,  वर्ना आज मुस्लिम हिन्दुओं पर हावी नहीं होते और न ईसाइ और मुस्लिम धर्म रुपांतरण करवा सकते। इसका रुप बदल कर जिन्ना ने आई.एस.आई मुस्लिम लीग और अन्य संस्थाये बना डाली। ज्ञात रहे नेहरु और जिन्ना भाई थे। इस परिवार ने समय-समय पर अपना धर्म बदला॥ 

अधिक जानकारी के लिए जरुर पढ़े - 

मेरा मानना है की जो अपने धर्म का न हुआ व किसी का क्या हो सकता है,  जिसका उदाहरण हिन्दुस्तान है, जिसके एक नहीं दो टुकडे (पाकिस्तान एंव कशमीर) करवा दिये एंव हिन्दुओं का नाशा करने में कोई कसर नहीं छोडी॥

इस समय नागा साधुआें के १३ प्रमुख अखाड़े हैं , जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण -

१.  श्री निरंजनी अखाड़ाः- यह अखाड़ा ८२६ ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिक स्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।

२.  श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा :- यह अखाड़ा ११४५ में उत्तराखण्ड के कर्ण-प्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत .श्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।

३. श्री महानिर्वाण अखाड़ा :- यह अखाड़ा ६७१ ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि १२६० में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में २२ हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।

४. श्री अटल अखाड़ा :- यह अखाड़ा ५६९ ईस्वी मेंगोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल,हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।

५. श्री आह्वान अखाड़ाः- यह अखाड़ा ६४६ में स्थापित हुआ और १६०३ में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।

६. श्री आनंद अखाड़ा :- यह अखाड़ा ८५५ ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।

७. श्री पंचाग्नि अखाड़ा :- इस अखाड़े की स्थापना ११३६ में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।

८. श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा :- यह अखाड़ा ईस्वी ८६६ में अहिल्या-गोदावरीसंगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम सेप्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।

९. श्री वैष्णव अखाड़ाः- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी १५९५ में दारागंज में श्री मध्यमुरारीमें स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। १८४८ तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता थाए परंतु १८४८ में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। १९३२ से ये नासिक में स्नान करनेलगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।

१०. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ाः- यह अखाड़ा १९१० में स्थापित हुआ। इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।

११. श्री उदासीन नया अखाड़ाः- यह अखाड़ा १७१० में स्थापित हुआ। इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।

१२. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ाः- यह अखाड़ा १७८४ में स्थापित हुआ। १७८४ में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकीस्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।

१३. निर्मोही अखाड़ाः- निर्मोही अखाड़े की स्थापना १७२० में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात औरबिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई हैं

नागा साधु बनने की प्रक्रिया - नागा साधु बनने की प्रक्रिया काफी कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बादवे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है। सच्चे शिव सैनिक-नागा साधू ! एक हाथ में माला दूजे में भाला शरीर पर वस्त्र के नाम पर मात्र भस्म-विभूति जन्म-मरण से मुक्त ये शिव भक्त केवल कुम्भ पर्व पर ही प्रकट होते हैं और लाखों करोड़ों दर्शकों की उत्सुकता का केंद्र बिन्दु भी जहाँ दत्तात्रेय की चरण पादुकाएं समझो वहीँ पर इनका निवास ये अखंड शिव भक्त निर्जन स्िाान पर बने अपने अखाड़ों में निवास करते हैं।  समाज से दूर व् सामाजिक बन्धनों से मुक्त ठीक वैसे ही जैसे देश की रक्षा में मुश्तैद फौजी अपनी छावनियों में निवास करते हैं।

आदि गुरु शंकराचार्य जी ने नागा साधू साम्प्रदाय का गठन सनातन धर्म की रक्षा के महती प्रयोजन से किया था एक सैनिक के रूप में इनके हथियार त्रिशूल, तलवार, दंड व् युद्ध उद्दघोष के लिए ‘शंख ‘ जिसे ये अपने आराध्य महाकाल ‘दत्तात्रेय ‘ अर्थात भगवान् शिव के आह्वान हेतु भी प्रयोग में लाते हैं। 

१७५७ में जब अहमद शाह दुर्रानी ने हिन्दुओं के पवित्र स्थल मथुरा ,वृन्दावन और गोकुल में हिन्दुओं के पूजा स्थल-मंदिरों को तोडा वृन्दावन में जहाँ तीर्थ यात्री होली के पवित्र अवसर पर पूजा अर्चना में मस्त थे अहमदशाह के इस्लामिक जेहाद के ज़हर से भरे अफगान सैनिकों ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया और मंदिरों को लूटा और मिस्मार कर दिया। चारों और लाशों के ढेर थे और किसी लाश का सर नहीं दिखाई देता था। शाह ने काफिरों ‘हिन्दुओं’ के सर पर पांच रूपए इनाम घोषित किया हुआ था शमीन सरकार एक प्रत्यक्ष दर्शी के अनुसार ‘ एक स्थान पर हमने देखा की दो सौ मृत बच्चों का ढेर लगा था और किसी भी बच्चे का सर नहीं था। गोकुल में अपने ‘अखाड़े’ की रक्षा के लिए हजारों की संख्या में बैरागी पंथ के नागा साधू अहमद शाह के अफगान सैनिकों से भिड़ गए घमासान युद्ध हुआ अफगान सैनिकों के पास घातक हथियारों के साथ साथ अपने बचाव के लिए शरीर पर ज़राबख्तर ‘कवच’और एक हाथ में शमशीर ‘तलवार’व दूसरे में ढाल भी थी। मगर नागा साधुओं के हाथ में केवल त्रिशूल या तलवार और बचाव के लिए नंगे शरीर पर मात्र ‘ भस्म’ युद्ध में २००० नागा वीर वीरगति को प्राप्त हुए मगर इतने ही अफगान हमलावर भी हलाक हो गए घबरा कर शाह ने अपने सैनिकों को वापिस बुला लिया।

आज वापस से सनातन धर्म की रक्षा के लिए इन आदरणीय एंव पुज्यनीय नागा साधुओं की अति आवश्यकता है। 
इस लेख के माध्यम से गुरु शंकराचार्य जी से एंव नागा साधुआें से निवेदन करुगा की वापस से नागा साधुआें को पुरानी स्थति में लाये ।।

जय सनातनधर् की 
जय हिन्दुराष्ट्र


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