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12 June 2017

कैसे कहु वो भारत देश है मेरा या सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा

’’ जहां डाल-डाल पर सोने की चिडिया करती है बसेरा
जहां सत्य , अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा
जहां आसमा से बाते करते मंदिर और शिवाले
जहा किसी नगर में किसी द्वारा पर कोई न ताला डाले
प्रेम की बंसी जहां बजाता हे ये शाम सवेरा
’’ वो भारत देश है मेरा ’’
परन्तु ....... आज   कैसे कहु सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा
’वीराना कर दिया मेरे देश के गदारों ने इस चमन को
कैसे रक्षा करेगा हर नौजवान हमारा इसकी
कैसे कहुं सारे जांह से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा॥’’
 
सारे जहां से अच्छा इंडिया हमारा
हम भेड-बकरी इसके यह गवारिया हमारा
सत्ता की खुमारी में आजादी से सो रहे
हडताल क्यों है इसकी पडताल हो रही
लेकर के कर्ज खाओं यह फर्ज है तुम्हारा
चोरो व धूसखोरों पर नोट है बरसते
ईमान के मुसाफिर राशन को है तरसते
वोटर से झूठे वादे कर वोट लेकर कर गए वो किनारा
जब राष्ट्रीय पूंजी पर वे डालते है डाका
फिर भी कहते इनकम बहुत कम है होता नहीं गुजारा
इस लिए सारे जहा से अच्छा इंण्डिया हमारा॥

जहां वोट बैंक के खातिर अधिकार छीने जाते है -
  • जहां योग्यता पर खंजर चले,  ’आरक्षण’ की कैची  से
  • जहां डाल-डाल पात-पात भ्रष्टाचार है।
  • जहां हर और फैली हो गंदगी ।
  • जहां सरकार द्वारा आम आदमी को कैसे लुटना है तरकीबे बनाई जाती हो।
  • जहा न्याय पाने के लिए तरसना पडता है।
  • जहा अपने लालच के लिए हरे भरे पेडों को काट जहरीली गैसे लेने के लिए मजुबर किया जाता हो। 
  • जहां लच्छेदार भाषण दे धोखा करते आमजन से।
  • जहां देश पर कुर्बान होने वालो के साथ न्याय न होता हो।

कैसे कहुॅ मेरा भारत महान ?
कैसे कहु सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्ता हमारा ?

01 May 2017

अहिंसा क्या है, उसका सच्चा अर्थ क्या है हमारे ग्रंथो में अंहिसा के बारे में क्या बतलाया है

कभी कभी मै सोचता था कि ” हिन्दु “सनातन धर्म इतना महान और शक्तीशाली था कि पूरे विश्व में उसका डंका बजता था फिर क्या हुआ कि सनातन धर्म ” हिन्दु “ का इतना पतन (नुकसान या हानि ) हो गया क्या कारण था ?
अंहिसा परमो धर्मः ” श्लोक का प्रचार-प्रसार किया और इस अधूरे श्लोक ने सनातन धर्म ” हिन्दु ” का ” सत्यानाश ” कर डाला। अधूरे श्लोक का परिणाम ये निकला कि ” हिन्दुओं “ने अपने शस्त्र छोड दिए ” शस्त्र विद्या ” का अभ्यास छोड दिया।
"अहिंसा परमो धर्मः "  
अर्थात अंहिसा ही परम धर्म है।  
इसी अधूरे श्लोक ” अंहिसा परमों धर्मः ” का उपयोग गाॅधी ने किया और भारत के क्रांतीकारी वीरों को दोषी बतला अंग्रेजों को बचाया।
यह अधुरा  श्लोक ही बतलाया गया। जिससे इस पूरे श्लोक का अर्थ ही बदल गया।  जबकी यह पूरा श्लोक इस प्रकार है - 

" अहिंसा परमो धर्मः 
धर्म हिंसा तथैव च:।। "
अर्थात - अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और धर्म रक्षार्थ हिंसा भी उसी प्रकार श्रेष्ठ है।

इस श्लोक को गांधी हिन्दु सभा में अधूरा ही पढ़ता था जिससे हिन्दुओ का धार्मिक खून उबल न पड़े। जिससे मुस्लिमों को बचाया जा सके। 
सब जानते है कि गांधी मुस्लिमों के पक्ष में था। गांधी वध के कारणों में एक सबसे बडा कारण भी यही था। जिसकी सच्चाई आज सबके सामने आ चुकी है।

आज भी हमारे हिन्दुस्तान में हिंदू विरोधी सरकारे हिन्दुओ को आधा ही श्लोक बताने की शौकीन हैं.. 
स्पष्ट कारण है हिन्दुओ का शोषण जरी रखा जा सके।

अहिंसा का सच्चा अर्थ गीता में जो कहा गया है -

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।

अर्थात् : " ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढ़ा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है। " 

शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किन्तु आततायी मनुष्य अपने अधर्म से ही मारा जाता है। 
आत्मरक्षा का यह हक कुछ मर्यादा के भीतर आधुनिक फ़ौजदारी क़ानून में भी स्वीकृत किया गया है। ऐसे मौकों पर अहिंसा से आत्मरक्षा की योग्यता अधिक मानी जाती है।

आपातकाल में तो 'प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्' यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं कहा है; किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है।

सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात् स्कन्धपर्ययः।।

अर्थात् - " इस जगत में ऐसे–ऐसे सूक्ष्म जन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से देख नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आँखों की पलक हिलाएं तो उतने से ही उन जन्तुओं का नाश हो जाता है।" 
आज के आधुनिक युग में मोटरसाईकल, कार, बसे, ए.सी, काम में ली जा रही है इनके इंजन से नि कलने वाली तीव्र गर्मी से न जाने कितने जीव मर रहे है।
ऐसी अवस्था में यदि हम मुख से कहते रहें कि 'हिंसा मत करो, हिंसा मत करो' तो उससे क्या लाभ होगा ?

अहिंसा का सच्चा तत्त्व जो समझ में आता है -

"जीवो जीवस्य जीवनम्"  
इस जगत में कौन किसको नहीं खाता ? 
यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। 

आपातकाल में तो  "प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्"  यह नियम सिर्फ़ स्मृतिकारों ही ने नहीं कहा है, किन्तु उपनिषदों में भी स्पष्ट कहा है - 

यदि सब लोग हिंसा छोड़ दें तो क्षात्र धर्म कहाँ और कैसे रहेगा ? 
यदि क्षात्र धर्म नष्ट हो जाए तो प्रजा की रक्षा कैसे होगी ? 
सारांश यह है कि नीति के सामान्य नियमों से ही सदा काम नहीं चलता; नीतिशास्त्र के प्रधान नियम– 
अहिंसा में भी कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है।
  
अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शान्ति आदि गुण शास्त्रों आदि में कहे गए हैं परन्तु ....
सब समय शान्ति से कैसे काम चल सकेगा? 

सदा शान्त रहने वाले मनुष्यों के बाल–बच्चों को भी दुष्ट लोग हरण किए बिना नहीं रहेंगे, उनको जब चाहे मार देगे, सम्पति छिन लेगे। इसी कारण का प्रथम उल्लेख करके प्रह्लाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा है–
"न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा।
इति तात विजानीहि द्वयमेतदसंशयम् ।।"

"अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः।"

अर्थात् - जिस मनुष्य को अपमानित होने पर भी क्रोध नहीं आता उसकी मित्रता और द्वेष दोनों ही बराबर हैं।' 

क्षात्रधर्म के अनुसार देखा जाए तो बिदुला ने यही कहा है किः–

"एतावानेव पुरुषो यदमर्षी यदक्षमी।
क्षमावान्निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान्।।"

अर्थात् - जिस मनुष्य को (अन्याय पर) क्रोध आता है और जो (अपमान को) सह नहीं सकता, वही पुरुष कहलाता है। जिस मनुष्य में क्रोध या चिढ़ नहीं है वह नपुंसक ही के समान है।'

मेंरे  कहने का तात्पर्य इतना ही है कि - 
इस अधुरे श्लोक ” अंहिसा परमो धर्मः ” 
का उपयोग छोडो और जागो और धर्म की रक्षा के लिऐ शस्त्र उठाओ।।

28 April 2017

शास्त्रों में " वर्ण " शब्द तो है लेकिन " जाति " नहीं ! महत्वपूर्ण जानकारी

हिन्दुस्तान में ऋषियों द्वारा लिखे गए धर्म शास्त्रों में समाज को ब्राह्राण , क्षत्रिय , वैशय , शुद्र वर्णो में विभाजित किया।

वर्ण का अर्थ क्या है -
वर्ण व्यवस्था "हिन्दू धर्म" में प्राचीन काल से चले आ रहे समाजिक गठन का अंग है, जिसमें विभिन्न लोगों के आध्यात्मिक विवेक के आधार पर काम निर्धारित होता था।

वर्ण शब्द ‘वृज’ वरणे से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है वरण अथवा चुनाव करना।  
आप्टे संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार-‘‘-रंग, रोगन, -रंग,रूप, सौन्दर्य, -मनुष्यश्रेणी, जनजातिया कबीला, जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र वर्ण के लोग )’’  
इस प्रकार, व्यक्ति अपने कर्म तथा स्वभाव के आधार पर जिस व्यवस्था का चुनाव करता है, वही वर्ण कहलाता है।

वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, मनुस्मृति तथा अन्य धर्म-ग्रन्थों में वर्ण व्यवस्था पर विस्तृत चर्चा की गई है, जाति कि नहीं,  हमारे ग्रंथो के अनुसार जो जैसा कर्म करता है वह उस जाति का माना जाता है। 
गुण, कर्म आैर स्वभाव के कारण मनुष्य-मनुष्य में भेद हो सकता है पर किसी कुल में जन्म लेने से नहीं।
गीता के शलोक 4/13 में श्रीकृष्ण कहते है कि -
 चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ।।13।। "
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान ।।13।।

गीता के श्लोक 18/41 में - 
 ब्राम्हण क्षत्रिय विन्षा शुद्राणच परतपः। 
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्रभवे गुणिः ॥  
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं ।।41।।
        
गीता के श्लोक 18/42 में -  
पूर्व श्लोक में की हुई प्रस्तावना के अनुसार पहले ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म बतलाते हैं-

" शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्राकर्म स्वभावजम् ।।42।। "
अन्तकरण का निग्रह करना; इन्द्रियाँ का दमन करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना , बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना, मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना,  वेद शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना, वेद शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं ।।42।।

गीता के श्लोक 18/43 में - 
ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्म बताकर अब क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्म बतलाते हैं-
" शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।।43।। "
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव – ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं ।।43।।

गीता के श्लोक 18/44 में - 
क्षत्रियों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करके अब वैश्य और शूद्रों के स्वाभाविक कर्म बतलाते हैं-
" कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।।44।। "
खेती, गोपालन और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार- ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है ।।44।।

इन सभी में व्यवसाय आैर स्वभाव के अनुसार ही वर्ण विभाजन की बात कही गई है। इसमें किसी जाति में जन्म के कारण ऊँच-नीच होने कि कोई भी बात नहीं लिखी है।

सभी मनुष्य एक ही प्रकार से पैदा होते हैं ।।
सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं ।।
इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं ।।

यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में वर्णों की उत्पत्ति के संबन्ध् में कहा गया है कि-
‘‘ब्राह्मण वर्ण विराट पुरुष अर्थात् परमात्मा के मुख के समान हैं, क्षत्रिय उसकी भुजाये हैं, वैश्य उसकी जंघाएं अथवा उदर हैं और शूद्र उसके पांव हैं।’’ 

इसी तरह ऋगवेद मंडल-१०, सूक्त-९०, मंत्र-१२ लिखा है कि-

‘‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहूराजन्यः कृतः। 
‘‘ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।’’ 

यहाँ ब्राह्मण की उत्पत्ति विराट् पुरुष के मुख से हुई है ऐसा कहने का अभिप्राय ब्राह्मण शरीर में मुखवत् सर्वश्रेष्ठ है। अतएव ब्राह्मणों का कार्य समाज में बोलना तथा अध्यापकों और गुरुओं की तरह अन्य वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को शिक्षित करना है। 

इसी प्रकार भुजाएं शक्ति की प्रतीक हैं, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शासन-संचालन एवं शस्त्र धारण करके समाज से अन्याय को मिटाकर लोगों की रक्षा करना है। 
इसीलिए श्रीराम ने वनवासी तपस्वियों के सम्मुख प्रतिज्ञा की थी कि-‘‘निशिरहीन करूं मही भुज उठाय प्रण कीन्ह’ ’वाल्मीकि ने लिखा है-  ‘‘क्षत्रियाः धनुर्संध् त्ते क्वचित् आर्त्तनादो न भवेदिति’’   अर्थात् क्षत्रिय लोग अपने हाथ में इसीलिए धनुष धारण करते हैं कि कहीं पर किसी का भी दुःखी स्वर न सुनाई दे। 

जघांएं बलिष्ठता एवं पुष्टता की प्रतीक मानी जाती हैं, अतएव समाज में वैश्यों का कार्य कृषि तथा व्यापार आदि के द्वारा धन संग्रह करके लोगों की उदर पूर्ति करना और समाज से पूरी तरह अभाव को मिटा देना है। 

शूद्र की उत्पत्ति उस विराट् पुरुष के पैरों से मानी गयी है अर्थात् पैरों की तरह तीनों वर्णों के सेवा का भार अपने कंधे पर वहन करना है। 

वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट।

मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।

हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपना कर या निजी स्वार्थ से प्रेरीत हो कर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं।

जन्मना वर्ण व्यवस्था को सत्य माना जाए तो समाज कुंठाग्रस्त होकर ही मर जाएगा ।।

जन्मना वर्ण व्यवस्था के आधार पर ब्राहमण ही रहेगा और शूद्र भी शूद्र। किसी को अपनी प्रोन्नति करने का कोई अवसर ही प्राप्त न होगा।

ब्राहमण नीच कर्मों में प्रवृत्त भी ब्राहमण ही होकर रहेगा और शूद्र धर्माचरण करता हुआ भी शूद्र।। 

यह  अत्याचार नहीं तो आैर क्या है ? 


मनुस्मृति में कहा गया है –


शूद्रो ब्राहमणतामेति ब्राहमणश्चैति शुद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यास्तथैव च।। (10:65)
गुण कर्मों के आधार पर शूद्र भी ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य हो सकता है। इसी प्रकार अन्य वर्णों को भी समझना चाहिये।   

असली मनुस्मृति में 630 श्लोक थे, 2400 श्लोक कैसे हो गए,सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए किसने मिलावट की ? 
चीन की  दीवार से प्राप्त हुयी पांडुलिपि में ‘पवित्र मनुस्मृति’ का जिक्र, सही मनुस्मृति में 630 श्लोक ही थे,,मिलावटी मनुस्मृति में अब श्लोकों की संख्या 2400 हो गयी।  जब चीन की इस प्राचीन पांडुलिपी में मनुस्मृति में 630 श्लोक बताया है तो आज 2400 श्लोक कैसे हो गयें ? इससे यह स्पष्ट होता है कि, बाद में मनुस्मृति में जानबूझकर षड्यंत्र के तहत अनर्गल तथ्य जोड़े गये जिसका मकसद महान सनातन धर्म को बदनाम करना व फूट डालना था।

जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। 
अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में ब्रिटिश थिंक टैंक द्वारा करवाई गयीं जिसका लक्ष्य भारतीय समाज को बांटना था। 

यह ठीक वैसे ही किया ब्रिटिशों ने जैसे भारत में मैकाले ब्रांड शिक्षा प्रणाली लागू की थी। ब्रिटिशों द्वारा करवाई गयी मिलावट काफी विकृत फैलाई।
सच का सामना
जाति-आधारित जनगणना, ब्रिटिश राज में हिन्दुआें को तोडने के लिए की गई थी । जिसे आज हमारे नेता अपना उल्लु सीधा करने के लिए काम में ले रहे है।

कोई भी शक की गुंजाईश नहीं है कि स्वार्थी लोगों की वज़ह से ही दुष्टता से भरी इस जाति-प्रथा को मजबूती मिली।  इन सबके बावजूद जाति-प्रथा की नींव और पुष्टि हमेशा से ही पूर्णरूप से गलत है।

सबसे पहले हम जातिगत जनगणना के औचित्य या अनौचित्य पर विचार करें - 
यह सही है कि धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में जाति के लिए कोई स्थान नहीं है हमारे संविधान-निर्माताओं ने जाति को संविधान में कोई स्थान न देकर बिल्कुल ठीक किया।

परंतु यथार्थ क्या है? 
जमीनी हकीकत क्या है? 
यथार्थ यह है कि हमारा समाज अनेक वर्गों और श्रेणियों में विभाजित हो गया है।

गणित शास्त्र में यह बात स्वयंसिद्ध् मानी गई है, कि- 

विषम में सम जोड़ने से विषम उत्पन्न होता है। यथा- ७, ९, ११ आदि विषम संख्याएं हैं।

इस में २,२ जोड़ने से ७+२:९, ९+२:११, ११+२:१३ होते हैं। इसी तरह यदि विषम को सम बनाना हो तो उसमें विषम अंक तोड़ना पडेगा। 

जैसे- ७+३: १०, ७+९: १६, ११+५: १६;। 

आश्चर्य है कि समाजशास्त्रा के आधुनिक पंडित  यानि आजके नेता सुप्रीम कोर्ट में बैठे अपने आप को न्यायाधिश विद्धवान कहने वाले सामाजिक संगठन के समय पर इस स्वयं सिद्ध को भूल गए हैं।


हमारे देश में चुनाव भी जातिगत आधार पर लड़े जाते हैं। चुनावों में जाति और साम्प्रदायिकता के कार्ड जम कर खेले जाते हैं। यहां तक कि टिकिट भी जाति के आधार पर बांटे जाते हैं।

जाती प्रथा की सच्चाई
कर्म से वर्ण या जाति व्यवस्था ! जन्म से वर्ण नहीं, प्राचीन काल में जब बालक समिधा हाथ में लेकर पहली बार गुरुकुल जाता था तो कर्म से वर्ण का निर्धारण होता था, यानि के बालक के कर्म गुण स्वभाव को परख कर गुरुकुल में गुरु बालक का वर्ण निर्धारण करते थे ! यदि ज्ञानी बुद्धिमान है तो ब्राह्मण, यदि निडर बलशाली है तो क्षत्रिय, आदि ! यानि के एक ब्राह्मण के घर शूद्र और एक शूद्र के यहाँ ब्राह्मण का जन्म हो सकता था ! लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था लोप हो गयी और जन्म से वर्ण व्यवस्था आ गयी, और हिन्दू धर्म का पतन प्रारम्भ हो गया !

 उपरोक्त विवेचना एवं विभिन्न प्रामाणिक ग्रन्थों के स्पष्ट एवं मजबूत प्रमाणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्णव्यवस्था जन्मना न होकर कर्मणा ही श्रेयस्कर एवं न्यायपूर्ण है। इसी के आधार पर हमें अपने वर्ण का चयन करना चाहिए, तभी एक सुव्यवस्थित समाज एवं राष्ट का विकासपूर्ण ढाँचा तैयार होगा।

क्या हिन्दुआें को इस तरह से साजिश के तहत नहीं बाटा गया ?
अब समय आ गया है कि हिन्दुआें को एक जुट होना होगा नहीं तो समाज में बटा हिन्दु एक दिन रोने को मजबुर हो जाएगा।।।

कौन था मैकाले ? उसका उद्देश्य और विचार क्या थे ?

मैकाले का पूरा नाम  ‘थोमस बैबिंगटन मैकाले’ था। वह एक ब्रिटिश देशभक्त.....इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा। इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था ...२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में,....,



"मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूंकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत।"

मैकाले की योजना को देश के  गद्दार भक्त इन पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते हैं.....अगर ये कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ ?

मैकाले के  गद्दार भक्त इस प्रश्न पर बगलें झाकती दिखती हैं और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्यवस्था की औलादें सेकुलर भेष में  बिखरी पड़ी हैं।

भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं। धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते... लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं 'अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति' के सामने। हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संस्कृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है।

अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें। इस कार्य को आगे बढाया जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष 'थोमस बैबिंगटन मैकाले' ने.... 1858 में लोर्ड मैकोले द्वारा Indian Education Act बनाया गया। मैकाले की सोच स्पष्ट थी, जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है। उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म करने और अंग्रेजी (जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागू करने का प्रारूप तैयार किया। मैकाले के शब्दों में:

"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं। हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों।" 
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्यवस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी... जिनकी मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले।

हाँ भी मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौद्धिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले (नाम नहीं लूँगा क्यूंकी एडविना की आत्मा को कष्ट होगा) कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव ..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा।

अब अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना, उन्नत होना माना जाने लगा। हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्यूंकी भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था।

जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में, उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार ..अब आज वर्तमान में हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी। अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और फिर बात वही आयी कम लागत वाली, तो उसी तरह का अवैज्ञानिक व्यवस्था बनाओं जिससे कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन हो सके।

क उदहारण देता हूँ: कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान ..मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की १००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें, नयी शोध तो दूर की कौड़ी है.. 
अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है और जीवन भर की प्रतिभा महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है ...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है.. 
अब जापान की बात करें १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है ...
किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता.. 
अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते हैं की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है। इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है।

Indian Education Act की ड्राफ्टिंग लोर्ड मैकोले ने की थी। लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि:
"भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।"

मैकोले कहता था -
"कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।" 
इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला। 
1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया। 

फिर उसने कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि::

"इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी" और उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा।

लोगों का तर्क है कि - अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है।
यहा तक कि जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है। जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी।

भारत को जय करने के लिए, चरित्र गिराने के लिए, अंग्रेजो ने 1758 में कलकत्ता में पहला शराबखाना खोला, जहाँ पहले साल वहाँ सिर्फ अंग्रेज जाते थे। 
चरित्र से निर्बल बनाने के लिए सन् 1760 में भारत में पहला वेश्याघर 'कलकत्ता में सोनागाछी' में अंग्रेजों ने खोला और लगभग 200 स्त्रियों को जबरदस्ती इस काम में लगाया गया। आज अंग्रेजों के जाने के 64 सालों के बाद, आज लगभग 20,80,000 माताएँ, बहनें इस गलत काम में लिप्त हैं। 

वर्तमान परिवेश में 'MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK' बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की हम अपनी संस्कृति को हीन समझे ...मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दूँ, मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है ..लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए ..और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की इस व्यवस्था का हिंदुस्थानी 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' होता जा रहा है। अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूंकी विदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूंकी बेइज्जती होती है। हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूंकी दौड़ में पीछे रह जाएगा। माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या ??

शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा,  क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है ..स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़त्म कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..
तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब? या 
हिंदी या भारतीय भाषा पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने?
शायद इसका एक ही उत्तर है हमें वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा। 
हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा, चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक।
हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी। उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए और शायद हमारे आदर्शो 'राम और कृष्ण' को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र। आज हमारे सामने पैसा चुनौती नहीं बल्कि भारत का चारित्रिक पतन चुनौती है। इसकी रक्षा और इसको वापस लाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

कानून व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :  
मैकाले ने एक कानून हमारे देश में लागू किया था जिसका नाम है Indian Penal Code (IPC). ये Indian Penal Code अंग्रेजों के एक और गुलाम देश Ireland के Irish Penal Code की फोटोकॉपी है, वहां भी ये IPC ही है लेकिन Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वहीं भारत में इस "I" का मतलब Indian है, इन दोनों IPC में बस इतना ही अंतर है बाकि कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है।

मैकोले का कहना था कि -
 भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाना है तो इसके शिक्षा तंत्र और न्याय व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करना होगा और आपने अभी ऊपर Indian Education Act पढ़ा होगा, वो भी मैकोले ने ही बनाया था और उसी मैकोले ने इस IPC की भी ड्राफ्टिंग की थी। ये बनी 1840 में और भारत में लागू हुई 1860 में। ड्राफ्टिंग करते समय मैकोले ने एक पत्र भेजा था ब्रिटिश संसद को जिसमे उसने लिखा था कि::
"मैंने भारत की न्याय व्यवस्था को आधार देने के लिए एक ऐसा कानून बना दिया है जिसके लागू होने पर भारत के किसी आदमी को न्याय नहीं मिल पायेगा। इस कानून की जटिलताएं इतनी है कि भारत का साधारण आदमी तो इसे समझ ही नहीं सकेगा और जिन भारतीयों के लिए ये कानून बनाया गया है उन्हें ही ये सबसे ज्यादा तकलीफ देगी और भारत की जो प्राचीन और परंपरागत न्याय व्यवस्था है उसे जड़मूल से समाप्त कर देगा।“ 

वो आगे लिखता है कि -
"जब भारत के लोगों को न्याय नहीं मिलेगा तभी हमारा राज मजबूती से भारत पर स्थापित होगा।"  
ये हमारी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के इसी IPC के आधार पर चल रही है और आजादी के 64 साल बाद हमारी न्याय व्यवस्था का हाल देखिये कि लगभग 4 करोड़ मुक़दमे अलग-अलग अदालतों में पेंडिंग हैं, उनके फैसले नहीं हो पा रहे हैं। 10 करोड़ से ज्यादा लोग न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं लेकिन न्याय मिलने की दूर-दूर तक सम्भावना नजर नहीं आ रही है, कारण क्या है? कारण यही IPC है। IPC का आधार ही ऐसा है।

प्रत्येक राष्ट्रभक्त यह अच्छी तरह जानता है कि सम्पूर्ण देश में जो कुछ भी राष्ट्रहित के विरुद्ध हो रहा है, उसमें मैकाले के मानसपुत्रों का ही हाथ है। क्योंकि, इनकी दृष्टि में अपना कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह अंग्रेजों की देन है।

उच्च न्यायालयों में हो भारतीय भाषाओं में काम क्यों नहीं -
भारत के उच्च न्यायालयों में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं  में किया जाना चाहिए।  इस विषय पर संविधान के अनुच्छेद 348(2) में स्पष्ट प्रावधान है कि संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से हिंदी/राज्य की राजभाषा में कार्यवाही किए जाने की अनुमति दी जा सकती है। इस हेतु न्यायालय से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता नहीं है।



आैर अंत में -
मेरा विरोध अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा से नहीं है अपितु हमारा विरोध जबरन थोपी जा रही गलत शिक्षा नीति से है। इसके तहत भारत के लाखों नौनिहालों को उनकी मातृभाषा से अलग-थलग कर देश में मातृभाषा विहीन जनशक्ति को एक छलावे के तहत शिक्षा दी जा रही है।

एक बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिये जिसमें वह सोचता और सपने देखता है। विगत कुछ वर्षों में हमारे देश में सत्ता में रही कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने इस मूलभूत शिक्षा सिद्धांत को ताक पर रखते हुए प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को बढ़ावा दिया और देश के नौनिहालों के साथ घोर अपराध किया है। दरअसल उसने मैकाले के स्वप्न को साकार किया है।

शिक्षा प्राप्त करना और अपनी  मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना एक बच्चे का मौलिक अधिकार है। आज देश के शिक्षित व नवधनाढ्य वर्ग की माताएं तो यही चाहती हैं कि जन्म के समय उनके बच्चे का प्रथम रुदन भी अंग्रेजी में हो। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समय आ गया है कि देश की सरकार, विधायिका व न्यायपालिका के साथ ही देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस विषय पर गहराई से विचार करे।

18 February 2017

केन्द्रीय सूचना आयोग का आदेश - विचार रोके नहीं जा सकते !

नाथूराम गोडसे के कोर्ट में दिए गए बयान सार्वजनकि हो - यह आदेश केन्द्रीय सूचना आयोग के सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने आर.टी.आई याचिका पर सुनवाई करते हुए दिए।
राष्टीय अभिलखागार भारत  " National Archives of India आवेदक को गांधी मर्डर केस की चार्जशीट आैर गोडसे के बयानों की प्रमाणित प्रति 20 दिनों में देने को कहा है।

श्रीधर ने कहा कोई गोडसे आैर सह-आरोपी से इत्तेफाक भले न रखे, लेकिन हम उनके विचार रोक नहीं सकते।

नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या कर दी थी। गांधी की हत्या के पश्चात गोडसे ने आत्मसमर्पण कर कहा की - गांधी की हत्या नहीं वध किया है। न्यायालय में इसे हत्या नहीं वध करार देते हुए अपने पक्ष को न्यायालय के सामने रखा।
नाथूराम गोडसे  ने सुनवाई के दौरान अपना पक्ष रखने के दौरान न्यायालय से कहा की वे अपने बयानों को न्यायालय में पढकर सुनाना चाहते है, जिसकी मंजूरी न्यायालय ने दी। 
न्यायालय में काफी भीड थी न्यायालय कक्ष में एंव बाहर आमजन का भारी समूह मौजुद था इसलिए न्यायालय के आदेश से माइक की व्यवस्था करवाई गई थी।   मैने गांधी को क्यों मारा ? से बयान की शुरुवात की, इसके बाद नाथूराम गोडसे ने गांधी के वध करने के 150 बिन्दू  बतलाए।


 नाथूराम गोडसे के यह अंतिम बयान -  इसे सुनकर अदालत में उपस्थित सभी लोगो की आँखे गीली हो गई थी और कई तो रोने लगे थे  जज महोदय ने अपनी टिपणी में लिखा था की यदि उस समय अदालत में उपस्तित लोगो को जूरी बना जाता और उनसे फेसला देने को कहा जाता तो निसंदेह वे प्रचंड बहुमत से नाथूराम के निर्दोष होने का निर्देश देते |
नाथूराम जी ने कोर्ट में कहा – सम्मान ,कर्तव्य और अपने देश वासियों के प्रति प्यार कभी कभी हमे अहिंसा के सिधांत से हटने के लिए बाध्य कर देता है | में कभी यह नहीं मान सकता की किसी आक्रामक का शसस्त्र प्रतिरोध करना कभी गलत या अन्याय पूर्ण भी हो सकता है | प्रतिरोध करने और यदि संभव हो तो एअसे शत्रु को बलपूर्वक वश में करना , में एक धार्मिक और नेतिक कर्तव्य मानता हु | मुसलमान अपनी मनमानी कर रहे थे | या तो कांग्रेस उनकी इच्छा के सामने आत्मसर्पण कर दे और उनकी सनक ,मनमानी और आदिम रवैये के स्वर में स्वर मिलाये अथवा उनके बिना काम चलाये | वे अकेले ही प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति के निर्णायक थे .महात्मा गाँधी अपने लिए जूरी और जज दोनों थे |
गाँधी ने मुस्लिमो को खुश करने के लिए हिंदी भाषा के सोंदर्य और सुन्दरता के साथ बलात्कार किया | गाँधी के सारे प्रयोग केवल और केवल हिन्दुओ की कीमत पर किये जाते थे जो कांग्रेस अपनी देश भक्ति और समाज वाद का दंभ भरा करती थी | उसीने गुप्त रूप से बन्दुक की नोक पर पकिस्तान को स्वीकार कर लिया और जिन्ना के सामने नीचता से आत्मसमर्पण कर दिया |
मुस्लिम तुस्टीकरण की निति के कारन भारत माता के टुकड़े कर दिए गय और 15 अगस्त 1947 के बाद देशका एक तिहाई भाग हमारे लिए ही विदेशी भूमि बन गई |  इसी को वे बलिदानों द्वारा जीती गई स्वंत्रता कहते है किसका बलिदान ? 
जब कांग्रेस के शीर्ष नेताओ ने गाँधी के सहमती से इस देश को काट डाला ,जिसे हम पूजा की वस्तु मानते है तो मेरा मस्तिष्क भयंकर क्रोध से भर गया | में साहस पूर्वक कहता हु की गाँधी अपने कर्तव्य में असफल हो गय उन्होंने स्वय को पकिस्तान का पिता होना सिद्ध किया |
में कहता हु की मेरी गोलिया एक ऐसे व्यक्ति पर चलाई गई थी ,जिसकी नित्तियो और कार्यो से करोडो हिन्दुओ को केवल बर्बादी और विनाश ही मिला ऐसे कोई क़ानूनी प्रक्रिया नहीं थी जिसके द्वारा उस अपराधी को सजा दिलाई जा सके इस्सलिये मेने इस घातक रस्ते का अनुसरण किया | में अपने लिए माफ़ी की गुजारिश नहीं करूँगा ,जो मेने किया उस पर मुझे गर्व है | मुझे कोई संदेह नहीं है की इतिहास के इमानदार लेखक मेरे कार्य का वजन तोल कर भविष्य में किसी दिन इसका सही मूल्या कन करेंगे |
यह वाक्य कौन कह सकता है
नाथूराम गोडसे को व उनके सह-अभियुक्त नारायण आप्टे को पंजाब की अम्बाला जेल में फांसी पर लटकने से पहले उन्होने अन्तिम शब्दों में कहा था - इन अंतिम वाक्य से आप ही फैसला करे की क्या नाथूराम जी देशभक्त थे या कातिल ?
  • मेरी अस्थियां तब तक नहीं प्रवाहित करना जब तक सिन्धु नदी भारत के ध्वज के तले न बहने लगे ! 
  • यदि अपने देश के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैने वह पाप किया है आैर यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मै अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूं !


यदि 30 जनवरी का गांधी का वध रुक जाता तो 3फरवरी 1948 को देश का एक आैर विभाजन होना पक्का था। जिसका स्वरुप इस प्रकार था -

लेकिन कांग्रेस सरकार ने डर से नाथूराम गोडसे के गांधी वध के कारणों पर एंव उनके भाई गोपाल गोडसे की किताब " गांधी वध क्यों " प्रतिबंध लगा दिया जिससे उनके द्वारा दिए गये बयान जनता तक किसी भी कीमत में न पहुच पाये। 

पढे - कांग्रेस ( नेहरु s/o मोतीलाल ) ने कशमीर में धारा 370 क्यों लगाई एंव पाकिस्तान  बनने पर स्वीकृति क्यों जाहिर की ?  
आपकी समझ में सब कुछ आ जाएगा।।

यदि न्यायालय में दिये गये बयान जनता तक पहुच जाते तो नाथूराम जी गोडसे देश के हीरों बन जाते।

वैसे भी मेरा मानना है की जिसका प्रचार-प्रसार होता है वे ही आजकल देश भक्त होते है।।







कैसे करें बैंक के खिलाफ शिकायत ?

बैंक में शिकायत तीन तरीकों से की जा सकती है।
  1. शिकायत सेल के ज़रिए- हर बैक में एक शिकायत सेल (grievances cell) होता है। आप इस सेल में जाकर अफसरों के सामने अपनी शिकायत दर्ज करा सकते हैं।
  2. टोल फ्री नंबर पर शिकायत- आप अपने बैंक के टॉल फ्री नंबर पर भी शिकायत दर्ज कर सकते हैं। ज़्यादातर राष्ट्रीयकृत बैंकों के पास अपने टॉल फ्री नंबर हैं। शिकायत दर्ज़ कराने के बाद शिकायत का नंबर (कंप्लेन्ट नंबर) ज़रूर लें, ताकि अगली बार बैंक से इस शिकायत के बारे में बात करते वक्त आपको सारी बात दोहराना ना पड़े, बल्कि इस नंबर से सारा मामला बैंक के कॉल सेंटर में बैठे एक्ज़ीक्यूटिव को समझ में आ जाए।
  3. बैंक की वेबसाइट पर शिकायत- आप बैंक की वेबसाइट पर भी अपनी शिकायत दर्ज कर सकते हैं। ऐसा करने पर बैंक के अधिकारी आपसे संपर्क करेंगे। शिकायत करने के तीस दिन के भीतर बैंक आपको जवाब देगा और समस्या का हल भी बताएगा।
अब अगर बैंक नहीं सुने तो लोकपाल से शिकायत करें।
पहले यह जान ले कि कौन होता है बैंकिंग लोकपाल 
बैंकिंग लोकपाल एक वरिष्ठ अधिकारी होता जिसे आरबीआई बैंकिंग सेक्टर से जुड़ी उपभोक्ताओं की शिकायतों का निवारण करने के लिए नियुक्त करता है। मौजूदा समय में 15 बैंकिंग लोकपाल नियुक्त किए गए हैं। जिनके ऑफिस अधिकतर राज्यों की राजधानी में हैं। इस योजना के अंतर्गत सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक,क्षेत्रीय ग्रमीण बैंक और अनुसूचित प्राथमिक सहकारी बैंक शामिल हैं। कोई भी अधिकृत प्रतिनिधि शिकायत दर्ज करा सकते हैं। सबसे खास बात यह है कि बैंकिंग लोकपाल शिकायत का निवारण करने के लिए  किसी भी तरह का कोई भी शुल्क नहीं लगता।
अगर आपका बैंक 30 दिन के भीतर आपकी शिकायत नहीं सुनता, तो आप बैंक के लोकपाल से संपर्क करें। ये लोकपाल भारतीय रिज़र्व बैंक की ओर से नियुक्त किए गए अफसर हैं, जो बैंक के खिलाफ की गई ग्राहकों की समस्या को हल करने का कार्य करते हैं। भारत में 15 लोकपाल हैं जिनके संपर्क नंबर और पते आप रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया की वेबसाइट पर भी देख सकते हैं। 
लोकपाल आपकी शिकायत के 30 दिनों के भीतर कार्रवाई करेंगे। वो आपके (यानी ग्राहक के) और बैंक के बीच कानूनी तौर पर बाध्य समझौता कराने की कोशिश करेंगे।
लोकपाल से शिकायत का तरीका
आप सादे कागज़ पर अपनी शिकायत लिखकर उस लोकपाल के दफ़्तर में अपनी शिकायत दर्ज कराएं, जिसके क्षेत्र के अंतर्गत आपके बैंक की ब्रांच आती है। आप रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर भी जाकर भी अपने क्षेत्र के लोकपाल को शिकायत भेज सकते हैं।
क्रेडिट कार्ड जारी करने वाले बैंक की लोकपाल से शिकायत – 
अक्सर क्रेडिट कार्ड का कारोबार करने वाले बैंकों का सारा रिकॉर्ड और सिस्टम सेंट्रलाइज़्ड होता है। ऐसे में आपका घर का पता जिस लोकपाल के क्षेत्र के अंतर्गत आता है, उसके द़फ्तर में या उसके ईमेल पते पर शिकायत दर्ज करें।
लोकपाल आपकी शिकायत  खारिज़  क्यों कर सकता है ?
आधार -
  1. अगर ग्राहक ने पहले बैंक में शिकायत ना दर्ज की हो।
  2. बैंक को जिस समय सीमा में ग्राहक की शिकायत का समधान करना है, वो समयसीमा समाप्त ना हुई हो।
  3. ग्राहक ने अदालत, या उपभोक्ता फोरम में पहले ही शिकायत दर्ज कर दी हो।
  4. बैंक में शिकायत दर्ज किए हुए एक साल से ज़्यादा समय बीत चुका हो।
लोकपाल कोई समझोता करा दे परन्तु आप समझौते से सहमत ना हो तो क्या करे ?
  • मुआवजे की सीमा है 10 लाख रुपये या फिर असल नुकसान, दोनों में से जो भी कम हो। यानी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में जाकर आप ज़्यादा से ज़्यादा 10 लाख रुपये का मुआवजा ही पा सकते हैं।
  • अगर आप लोकपाल के समझौते से भी खुश ना हों, तो आप बैंक के खिलाफ ये कदम उठा सकते हैं।  
पहला कदम- आप रिज़र्व बैंक के डिप्टी गवर्नर से 30 दिन के भीतर संपर्क कर सकते हैं। 
दूसरा कदम- आप उपभोक्ता फोरम में संपर्क कर सकते हैं, जो बैंक से जुड़ी शिकायत लेता है। 
तीसरा कदम- आप बैंक के खिलाफ़ अदालत में जा सकते हैं।
शिकायत किन किन कारणों से करे
किस प्रकार के मामलों में लोकपाल तरजीह देता है-
  1. किसी भी तरह के भुगतान या चेक, ड्राफ्ट, बिल के कलेक्शन में देरी या न होने के स्थिति में।
  2. आरबीआई के निर्देशों में निर्धारित शुल्क से ज्यादा लेने के संबंध में सुवाई की जाती है।
  3. बैंक की ओर से की गई लापारवाही या पिर किसी और वजह से चेक के भुगतान में देरी को लेकर भी शिकायत दर्ज करा सकते है।
  4. अगर बैंक एकाउंट खोलने या बंद करने में किसी भी तरह की आनाकानी के विषय में शिकायत कर सकते हैं। 5. आरबीआई के निर्देश अनुसार से ब्याज दरों को मुहैया न कराना या फिर तय सीमा से ज्यादा लेना भी शिकायत का विषय है।
  5. आरबीआई की ओर से दिए गए क्रेडिट या डेबिट कार्ड संबंधी निर्देशों के उल्लंघन पर भी शिकायत कर सकते है।
  6. अगर बैंक आपको किसी भी सेवा के लिए माना करता है।
  7. यदि बैंक कर भुगतान लेने से मना कर दे।
  8. अगर बैंक बिना किसी कारण के डिपॉजिट एकाउंट खोलने को मना कर दे।
  9. अगर बैंक किसी भी पूर्व सूचना के बिना अपने उपभोक्ताओं से ज्यादा शुल्क लेता है तो उस स्थिति में भी आप शिकायत दर्ज करा सकते है।
  10. बिना पर्याप्त सूचना और वाजिब कारण के आपके डिपॉजिट एकाउंट को जबरन बंद करना
  11. आपके एकाउंट को बंद में देरी या फिर माना करना
  12. बैंकों की ओर से पारदर्शी प्रक्रिया कोड का पालन न करना
  13. बैंकिंग और अन्य सेवाओं के संबंध में आरबीआई की ओर से जारी निदेशों के उल्लंधन से संबंधित अन्य कोई मामला
  14. काम करने के निर्धारित समय का पालन न करना
  15. बैंक के लिखित निर्देशों के बावजूद किसी भी सेवा लोन के अलावा मुहैया करने में नाकामी या देरी की स्थिति में भी शिकायत दर्ज की जा सकती है।
  16. ड्राफ्ट, भुगतान आदेश और बैंकर्स चेक जारी करने में देरी या जारी न करना
  17. सिक्कों को बिना किसी पर्याप्त कारण के स्वीकार न करना और उसके संबंध में कमीशन लेना
  18. एस.एम.एस के नाम पर बगैर जानकारी दिए पैसे काट रहे हो।
बैंकिग लोपाल कार्यालय के पते -

क्रं संकेद्रबैंकिंग लोकपाल कार्यालय के संपर्क ब्‍योरेकार्य क्षेत्र
1.अहमदाबादश्री सुनील टी एस नायर
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
ला गज्‍जर चेम्‍बर्स,
आश्रम रोड,
अहमदाबाद- 380 009
एसटीडी कोड - 079
दूरभाष सं- 26582357/26586718
फेक्‍स सं. 26583325

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गुजरात दादर और नगर हवेली दमन और दीव संघ शासित क्षेत्र
2.बेंगलूरुसुश्री सी.आर. संयुक्ता
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
10 3 8 नृपतुंगा रोड
बेंगलूरु-560 001
एसटीडी कोड - 080
दूरभाष सं. 22210771/22275629
फेक्‍स सं. 22244047

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कर्नाटक
3.भोपालश्री पी. के. अरोड़ा
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
होशंगाबाद रोड
पोस्‍ट बॉक्‍स सं. 32, भोपाल-462011
एसटीडी कोड - 0755
दूरभाष सं. 2573772/2573776
फेक्‍स सं. 2573779

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मध्‍य प्रदेश और छत्तीसगढ़
4.भुवनेश्वरश्री बी के मिश्रा
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
पं जवाहरलाल नेहरु मार्ग
भुवनेश्वर- 751 001
एसटीडी कोड - 0674
दूरभाष सं. 2396207/2396008
फेक्‍स सं. 2393906

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ओडिशा
5चंडीगढ़श्री जे.एल. नेगी
भारतीय रिजर्व बैंक भवन
4 मंजिल, सेक्टर 17,
चंडीगढ़
दूरभाष सं. 0172 - 2721109
फेक्‍स सं. 0172 - 2721880

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हिमाचल प्रदेश, पंजाब, संघ शासित क्षेत्र चंडीगढ़ तथा हरियाणा के पंचकुला, यमुना नगर और अम्‍बाला जिले
6चेन्‍नैश्री एस. राजा
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
फोर्ट ग्‍लैसिस
चेन्‍नै -600 001
एसटीडी कोड - 044
दूरभाष सं. 25395964
फेक्‍स सं. 25395488

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तमिलनाडु, संघ शासित क्षेत्र पुडुच्चेरी (माहे क्षेत्र को छोड़कर) तथा अंडमान ओर निकोबार द्वीपसमूह
7गुवाहाटीश्री आनन्‍द प्रकाश
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
स्‍टेशन रोड,
पान बाजार
गुवाहाटी 781 001
एसटीडी कोड - 0361
दूरभाष सं. 2542556/2540445
फेक्‍स सं. 2540445

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असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैण्‍ड और त्रिपुरा
8हैदराबादडॉ एन. कृष्‍णमोहन
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
6-1- 56 सचिवालय रोड
सैफाबाद,
हैदराबाद- 500 004
एसटीडी कोड - 040
दूरभाष सं. 23210013/23243970
फेक्‍स सं. 23210014

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आंध्र प्रदेश और तेलंगाना
9जयपुरश्रीमती माधवी शर्मा
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
रामबाग सर्कल टोंक रोड, पोस्ट बॉक्स सं.12
जयपुर 302 052
एसटीडी कोड - 0141
दूरभाष सं. 0141-5107973
फेक्‍स सं. 2562220

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राजस्‍थान
10कानपुरश्री ए. के. नस्‍कर
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
एम. जी. रोड, पोस्‍ट बॉक्‍स सं. 82
कानपुर 208 001
एसटीडी कोड - 0512
दूरभाष सं. 2306278/2303004
फेक्‍स सं. 2305938

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उत्तर प्रदेश (गाजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जिले छोड़कर) तथा उत्तराखंड
11कोलकाताश्रीमती रीना बनर्जी
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
15, नेताजी सुभाष रोड
कोलकाता- 700 001
एसटीडी कोड - 033
दूरभाष सं. 22304982
फेक्‍स सं. 22305899

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पश्रिम बंगाल और सिक्किम
12मुंबईश्रीमती. रंजना सहजवाला
बैकिंग लोकपाल का कार्यालय
(महाराष्ट्र और गोवा)
द्वाराः भारतीय रिज़र्व बैंक
भायखला ऑफि‍स बि‍ल्डिंग,
4थी मंज़ि‍ल, मुंबई सेन्ट्रल रेल्वे स्टेशनके सामने,
भायखला, मुंबई-400 008,
फोन : +91 22-23022028 (सिधा)
फैक्‍स : +91 22-23022024

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महाराष्‍ट्र और गोवा
13नई दिल्‍लीश्री आर. एल. शर्मा
द्वाराः भारतीय रिज़र्व बैंक
संसद मार्ग, नई दिल्‍ली
एसटीडी कोड - 011
दूरभाष सं. 23725445/23710882
फेक्‍स सं. 23725218

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दिल्‍ली, जम्‍मू और कश्‍मीर, उत्तर प्रदेश के गजियाबाद और गौतम बुद्ध नगर जिले, हरियाणा (पंचकुला, यमुना नगर और अम्‍बाला जिलों को छोड़कर),
14पटनाश्रीमती चंद्रमणी
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
पटना 800 001
एसटीडी कोड - 0612
दूरभाष सं. 2322569/2323734
फेक्‍स सं. 2320407

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बिहार और झारखण्‍ड
15तिरुवनंतपुरमश्रीमती उमा शंकर
द्वारा: भारतीय रिज़र्व बैंक
बेकरी जंक्‍शन
तिरुवनंतपुरम - 695 033
एसटीडी कोड - 0471
दूरभाष सं. 2332723/2323959
फेक्‍स सं. 2321625

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केरल तथा लक्षदीप संघ शासित क्षेत्र और पुडुच्चेरी संघ शासित क्षेत्र

यदि किसी व्‍यक्ति को रिज़र्व बैंक के किसी भी विभाग के विरुद्ध शिकायत हो तो वह अपनी शिकायत सीईपी कक्ष में दाखिल कर सकता है। शिकायत में शिकायतकर्ता के नाम व पते, उस विभाग के नाम, जिसके विरुद्ध शिकायत की जा रही है, तथा उसके साथ मामले के तथ्‍यों का उल्‍लेख हो और तथ्‍यों के समर्थन में उन दस्‍तावेजों का  होना ज़रूरी है, जिनके आधार पर शिकायतकर्ता निर्भर है।
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