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28 April 2017

कौन था मैकाले ? उसका उद्देश्य और विचार क्या थे ?

मैकाले का पूरा नाम  ‘थोमस बैबिंगटन मैकाले’ था। वह एक ब्रिटिश देशभक्त.....इसलिए इसे लार्ड की उपाधि मिली थी और इसे लार्ड मैकाले कहा जाने लगा। इसके एक ब्रिटिश संसद को दिए गए प्रारूप का वर्णन करना उचित समझूंगा जो इसने भारत पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए दिया था ...२ फ़रवरी १८३५ को ब्रिटेन की संसद में मैकाले की भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में,....,



"मैं भारत में काफी घुमा हूँ। दाएँ- बाएँ, इधर उधर मैंने यह देश छान मारा और मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो, जो चोर हो। इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं की मैं नहीं समझता की हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे। जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ की हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूंकी अगर भारतीय सोचने लग गए की जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है और उनकी अपनी चीजों से बेहतर हैं, तो वे अपने आत्मगौरव, आत्म सम्मान और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं। एक पूर्णरूप से गुलाम भारत।"

मैकाले की योजना को देश के  गद्दार भक्त इन पंक्तियों को कपोल कल्पित कल्पना मानते हैं.....अगर ये कल्पित पंक्तिया है, तो इन काल्पनिक पंक्तियों का कार्यान्वयन कैसे हुआ ?

मैकाले के  गद्दार भक्त इस प्रश्न पर बगलें झाकती दिखती हैं और कार्यान्वयन कुछ इस तरह हुआ की आज भी मैकाले व्यवस्था की औलादें सेकुलर भेष में  बिखरी पड़ी हैं।

भारत इतना संपन्न था की पहले सोने चांदी के सिक्के चलते थे कागज की नोट नहीं। धन दौलत की कमी होती तो इस्लामिक आतातायी श्वान और अंग्रेजी दलाल यहाँ क्यों आते... लाखों करोड़ रूपये के हीरे जवाहरात ब्रिटेन भेजे गए जिसके प्रमाण आज भी हैं मगर ये मैकाले का प्रबंधन ही है की आज भी हम लोग दुम हिलाते हैं 'अंग्रेजी और अंग्रेजी संस्कृति' के सामने। हिन्दुस्थान के बारे में बोलने वाला संस्कृति का ठेकेदार कहा जाता है और घृणा का पात्र होता है।

अंग्रेजों के सामने चुनौती थी की कैसे भारतियों को उस भाषा में पारंगत करें जिससे की ये अंग्रेजों के पढ़े लिखे हिंदुस्थानी गुलाम की तरह कार्य कर सकें। इस कार्य को आगे बढाया जनरल कमेटी ऑफ पब्लिक इंस्ट्रक्शन के अध्यक्ष 'थोमस बैबिंगटन मैकाले' ने.... 1858 में लोर्ड मैकोले द्वारा Indian Education Act बनाया गया। मैकाले की सोच स्पष्ट थी, जो की उसने ब्रिटेन की संसद में बताया जैसा ऊपर वर्णन है। उसने पूरी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म करने और अंग्रेजी (जिसे हम मैकाले शिक्षा व्यवस्था भी कहते है) शिक्षा व्यवस्था को लागू करने का प्रारूप तैयार किया। मैकाले के शब्दों में:

"हमें एक हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है जो हम अंग्रेज शासकों एवं उन करोड़ों भारतीयों के बीच दुभाषिये का काम कर सके, जिन पर हम शासन करते हैं। हमें हिन्दुस्थानियों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना है, जिनका रंग और रक्त भले ही भारतीय हों लेकिन वह अपनी अभिरूचि, विचार, नैतिकता और बौद्धिकता में अंग्रेज हों।" 
और देखिये आज कितने ऐसे मैकाले व्यवस्था की नाजायज श्वान रुपी संताने हमें मिल जाएंगी... जिनकी मात्रभाषा अंग्रेजी है और धर्मपिता मैकाले।

हाँ भी मैकाले शिक्षा व्यवस्था चाल कामयाब हुई अंग्रेजों ने जब ये देखा की भारत में रहना असंभव है तो कुछ मैकाले और अंग्रेजी के गुलामों को सत्ता हस्तांतरण कर के ब्रिटेन चले गए कुछ हिन्दुस्तानी भेष में बौद्धिक और वैचारिक रूप से अंग्रेज नेता और देश के रखवाले (नाम नहीं लूँगा क्यूंकी एडविना की आत्मा को कष्ट होगा) कालांतर में ये ही पद्धति विकसित करते रहे हमारे सत्ता के महानुभाव ..इस प्रक्रिया में हमारी भारतीय भाषाएँ गौड़ होती गयी और हिन्दुस्थान में हिंदी विरोध का स्वर उठने लगा।

अब अंग्रेजी का मतलब सभ्य होना, उन्नत होना माना जाने लगा। हमारी पीढियां मैकाले के प्रबंधन के अनुसार तैयार हो रही थी और हम भारत के शिशु मंदिरों को सांप्रदायिक कहने लगे क्यूंकी भारतीयता और वन्दे मातरम वहां सिखाया जाता था।

जब से बहुराष्ट्रीय कंपनिया आयीं उन्होंने अंग्रेजो का इतिहास दोहराना शुरू किया और हम सभी सभ्य बनने में, उन्नत बनने में लगे रहे मैकाले की पद्धति के अनुसार ..अब आज वर्तमान में हमें नौकरी देने वाली हैं अंग्रेजी कंपनिया जैसे इस्ट इंडिया थी। अब ये ही कंपनिया शिक्षा व्यवस्था भी निर्धारित करने लगी और फिर बात वही आयी कम लागत वाली, तो उसी तरह का अवैज्ञानिक व्यवस्था बनाओं जिससे कम लागत में हिन्दुस्थानियों के श्रम एवं बुद्धि का दोहन हो सके।

क उदहारण देता हूँ: कुकुरमुत्ते की तरह हैं इंजीनियरिंग और प्रबंधन संस्थान ..मगर शिक्षा पद्धति ऐसी है की १००० इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग स्नातकों में से शायद १० या १५ स्नातक ही रेडियो या किसी उपकरण की मरम्मत कर पायें, नयी शोध तो दूर की कौड़ी है.. 
अब ये स्नातक इन्ही अंग्रेजी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पास जातें है और जीवन भर की प्रतिभा महीने पर गिरवी रख गुलामों सा कार्य करते है ...फिर भी अंग्रेजी की ही गाथा सुनाते है.. 
अब जापान की बात करें १०वीं में पढने वाला छात्र भी प्रयोगात्मक ज्ञान रखता है ...
किसी मैकाले का अनुसरण नहीं करता.. 
अगर कोई संस्थान अच्छा है जहाँ भारतीय प्रतिभाओं का समुचित विकास करने का परिवेश है तो उसके छात्रों को ये कंपनिया किसी भी कीमत पर नासा और इंग्लैंड में बुला लेती है और हम मैकाले के गुलाम खुशिया मनाते हैं की हमारा फला अमेरिका में नौकरी करता है। इस प्रकार मैकाले की एक सोच ने हमारी आने वाली शिक्षा व्यवस्था को इस तरह पंगु बना दिया की न चाहते हुए भी हम उसकी गुलामी में फसते जा रहें है।

Indian Education Act की ड्राफ्टिंग लोर्ड मैकोले ने की थी। लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि:
"भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।"

मैकोले कहता था -
"कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।" 
इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला। 
1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया। 

फिर उसने कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि::

"इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी" और उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा।

लोगों का तर्क है कि - अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है।
यहा तक कि जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है। जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी।

भारत को जय करने के लिए, चरित्र गिराने के लिए, अंग्रेजो ने 1758 में कलकत्ता में पहला शराबखाना खोला, जहाँ पहले साल वहाँ सिर्फ अंग्रेज जाते थे। 
चरित्र से निर्बल बनाने के लिए सन् 1760 में भारत में पहला वेश्याघर 'कलकत्ता में सोनागाछी' में अंग्रेजों ने खोला और लगभग 200 स्त्रियों को जबरदस्ती इस काम में लगाया गया। आज अंग्रेजों के जाने के 64 सालों के बाद, आज लगभग 20,80,000 माताएँ, बहनें इस गलत काम में लिप्त हैं। 

वर्तमान परिवेश में 'MY HINDI IS A LITTLE BIT WEAK' बोलना स्टेटस सिम्बल बन रहा है जैसा मैकाले चाहता था की हम अपनी संस्कृति को हीन समझे ...मैं अगर कहीं यात्रा में हिंदी बोल दूँ, मेरे साथ का सहयात्री सोचता है की ये पिछड़ा है ..लोग सोचते है त्रुटी हिंदी में हो जाए चलेगा मगर अंग्रेजी में नहीं होनी चाहिए ..और अब हिंगलिश भी आ गयी है बाज़ार में..क्या ऐसा नहीं लगता की इस व्यवस्था का हिंदुस्थानी 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' होता जा रहा है। अंग्रेजी जीवन में पूर्ण रूप से नहीं सिख पाया क्यूंकी विदेशी भाषा है...और हिंदी वो सीखना नहीं चाहता क्यूंकी बेइज्जती होती है। हमें अपने बच्चे की पढाई अंग्रेजी विद्यालय में करानी है क्यूंकी दौड़ में पीछे रह जाएगा। माता पिता भी क्या करें बच्चे को क्रांति के लिए भेजेंगे क्या ??

शिक्षा अंग्रेजी में हुए तो समाज खुद ही गुलामी करेगा,  क्यूकी आज अंग्रेजी न जानने वाला बेरोजगार है ..स्वरोजगार के संसाधन ये बहुराष्ट्रीय कंपनिया ख़त्म कर देंगी फिर गुलामी तो करनी ही होगी..
तो क्या हम स्वीकार कर लें ये सब? या 
हिंदी या भारतीय भाषा पढ़कर समाज में उपेक्षा के पात्र बने?
शायद इसका एक ही उत्तर है हमें वर्तमान परिवेश में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित उच्च आदर्शों को स्थापित करना होगा। 
हमें विवेकानंद का "स्व" और क्रांतिकारियों का देश दोनों को जोड़ कर स्वदेशी की कल्पना को मूर्त रूप देने का प्रयास करना होगा, चाहे भाषा हो या खान पान या रहन सहन पोशाक।
हर कोई छद्म सेकुलर बनकर सफ़ेद पोशाक पहन कर मैकाले के सुर में गायेगा तो आने वाली पीढियां हिन्दुस्थान को ही मैकाले का भारत बना देंगी। उन्हें किसी ईस्ट इंडिया की जरुरत ही नहीं पड़ेगी गुलाम बनने के लिए और शायद हमारे आदर्शो 'राम और कृष्ण' को एक कार्टून मनोरंजन का पात्र। आज हमारे सामने पैसा चुनौती नहीं बल्कि भारत का चारित्रिक पतन चुनौती है। इसकी रक्षा और इसको वापस लाना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

कानून व्यवस्था में मैकाले प्रभाव :  
मैकाले ने एक कानून हमारे देश में लागू किया था जिसका नाम है Indian Penal Code (IPC). ये Indian Penal Code अंग्रेजों के एक और गुलाम देश Ireland के Irish Penal Code की फोटोकॉपी है, वहां भी ये IPC ही है लेकिन Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वहीं भारत में इस "I" का मतलब Indian है, इन दोनों IPC में बस इतना ही अंतर है बाकि कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है।

मैकोले का कहना था कि -
 भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाना है तो इसके शिक्षा तंत्र और न्याय व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करना होगा और आपने अभी ऊपर Indian Education Act पढ़ा होगा, वो भी मैकोले ने ही बनाया था और उसी मैकोले ने इस IPC की भी ड्राफ्टिंग की थी। ये बनी 1840 में और भारत में लागू हुई 1860 में। ड्राफ्टिंग करते समय मैकोले ने एक पत्र भेजा था ब्रिटिश संसद को जिसमे उसने लिखा था कि::
"मैंने भारत की न्याय व्यवस्था को आधार देने के लिए एक ऐसा कानून बना दिया है जिसके लागू होने पर भारत के किसी आदमी को न्याय नहीं मिल पायेगा। इस कानून की जटिलताएं इतनी है कि भारत का साधारण आदमी तो इसे समझ ही नहीं सकेगा और जिन भारतीयों के लिए ये कानून बनाया गया है उन्हें ही ये सबसे ज्यादा तकलीफ देगी और भारत की जो प्राचीन और परंपरागत न्याय व्यवस्था है उसे जड़मूल से समाप्त कर देगा।“ 

वो आगे लिखता है कि -
"जब भारत के लोगों को न्याय नहीं मिलेगा तभी हमारा राज मजबूती से भारत पर स्थापित होगा।"  
ये हमारी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के इसी IPC के आधार पर चल रही है और आजादी के 64 साल बाद हमारी न्याय व्यवस्था का हाल देखिये कि लगभग 4 करोड़ मुक़दमे अलग-अलग अदालतों में पेंडिंग हैं, उनके फैसले नहीं हो पा रहे हैं। 10 करोड़ से ज्यादा लोग न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं लेकिन न्याय मिलने की दूर-दूर तक सम्भावना नजर नहीं आ रही है, कारण क्या है? कारण यही IPC है। IPC का आधार ही ऐसा है।

प्रत्येक राष्ट्रभक्त यह अच्छी तरह जानता है कि सम्पूर्ण देश में जो कुछ भी राष्ट्रहित के विरुद्ध हो रहा है, उसमें मैकाले के मानसपुत्रों का ही हाथ है। क्योंकि, इनकी दृष्टि में अपना कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है। जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह अंग्रेजों की देन है।

उच्च न्यायालयों में हो भारतीय भाषाओं में काम क्यों नहीं -
भारत के उच्च न्यायालयों में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं  में किया जाना चाहिए।  इस विषय पर संविधान के अनुच्छेद 348(2) में स्पष्ट प्रावधान है कि संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से हिंदी/राज्य की राजभाषा में कार्यवाही किए जाने की अनुमति दी जा सकती है। इस हेतु न्यायालय से विचार-विमर्श करने की आवश्यकता नहीं है।



आैर अंत में -
मेरा विरोध अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा से नहीं है अपितु हमारा विरोध जबरन थोपी जा रही गलत शिक्षा नीति से है। इसके तहत भारत के लाखों नौनिहालों को उनकी मातृभाषा से अलग-थलग कर देश में मातृभाषा विहीन जनशक्ति को एक छलावे के तहत शिक्षा दी जा रही है।

एक बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसी भाषा में होनी चाहिये जिसमें वह सोचता और सपने देखता है। विगत कुछ वर्षों में हमारे देश में सत्ता में रही कांग्रेसनीत संप्रग सरकार ने इस मूलभूत शिक्षा सिद्धांत को ताक पर रखते हुए प्राथमिक स्तर से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों को बढ़ावा दिया और देश के नौनिहालों के साथ घोर अपराध किया है। दरअसल उसने मैकाले के स्वप्न को साकार किया है।

शिक्षा प्राप्त करना और अपनी  मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना एक बच्चे का मौलिक अधिकार है। आज देश के शिक्षित व नवधनाढ्य वर्ग की माताएं तो यही चाहती हैं कि जन्म के समय उनके बच्चे का प्रथम रुदन भी अंग्रेजी में हो। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। समय आ गया है कि देश की सरकार, विधायिका व न्यायपालिका के साथ ही देश का बुद्धिजीवी वर्ग इस विषय पर गहराई से विचार करे।

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