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23 April 2015

सम्राट पृथ्वीराज चौहान

भारत के अन्तिम हिन्दु सम्राट पृथ्वीराज चौहान    (जन्म सन् 1166-मृत्यु 1192)

ऐसा योद्धा जो युद्ध हार कर भी विजयी रहे। इस महान योद्धा में जहा प्रेम हिलोरें मारता था, वहीं उसने धनुष से छूटते बाणों की मार शत्रु सेना को भयभीत कर देती थी। राजपूतों की शान इस महान धनुर्धर ने किसी भी तरह से अपने देश के गौरव पर कोई आंच नहीं आने दी और अपने दुशमन के सीने को शब्दभेदी बाण से चीरकर हार को भी जीत में बदल दिया।

पृथ्वीराज चौहान उत्तरी भारत में 12वी सदी के उत्तरार्ध के दौरान राज्य करते थे पृथ्वीराज चौहान को राय पिथौरा भी कहा जाता है। वे चौहान वंश के प्रसिद्ध राजा थे।

पृथ्वीराज के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वीराज बडे-बडे राजाओं का धमण्ड चूर करेगे और कई राजाओं को जीतकर चक्रवर्ती सम्राट बनेगे।

पृथ्वीराज ने बाल अवस्था में शेर से लडाई कर उसका जबडा फाड दिया था। पृथ्वीराज चौहान के जन्म के वक्त महाराज को एक अनाथ बालक मिला जिसका नाम चन्दबरदाई रखा गया, आगे चल कर वे कवि हुए। चन्दवरदाई और पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही अच्छे मित्र व भाई समान थे।

जब पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, उनके पिता का वि.स.1234 में देहांत हो गया। 14 वर्ष की आयु मंे इनका राजतिलक कर उन्हे राजगदी पर आसीन किया गया।  पृथ्वीराज की आयु कम होने के कारण उनकी माता ने प्रधानमंत्री केमास की देखरेख में राज्य का कार्यभार संभाला और पुत्र को शिक्षित किया। 

पृथ्वीराज ने 25 वर्ष की आयु तक कुलगुरु आचार्य से 34 कलाओ, 14 विधाओं, यु़द्ध-शस्त्र चित्रकला, विविध देशों की भाषा, का ज्ञान प्राप्त किया, पृथ्वीराज को शब्द भेदी धनुर्विधा उनके गुरु ने देकर आर्शीवाद दिया कि इस शब्द भेदी बाण विधा से तुम विश्व में एक मात्र योद्धा कहलाओगे और धनुर्विधा में कोई तुम्हारा मुकाबला नहीं कर पाएगा और तुम चक्रवर्ती सम्राट कहलाओगे।

पृथ्वीराज ने अपने दरबार के 150 सामंतो के एंव सेनाध्यक्ष कमासा के सहयोग से छोटी उम्र में दिग्विजय का बीडा उठाया और चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बन गये।

पृथ्वीराज को कविता में रुचि थी। उनके दरबार में कशमीरी पंडित कवि जयानक, विधापति गौड, वणीष्वर जर्नादन, विशवरुप प्रणभनाथ और पृथ्वी भट्ट जिसे चंद्रवरदायी कहते थे, उच्च कोटि के कवि थे। उस समय पत्राचार ओर बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, अजमेर और उज्जैन के सरस्वती कण्ठ भरण विधापीठ से उर्तीण छात्र प्रकाण्ड पण्डित माने जाते थे। 

पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल तंवर दिल्ली के राजा थे, उनके कोई पुत्र नहीं होने के कारण अपनी पुत्री के समक्ष पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज बनाने की बात कही। एंव दामाद अजमेर के महाराजा सोमेशवर से भी इस बारे में विचार विमर्ष किया। राजा सोमेशवर ने इसके लिए अपनी सहमी प्रदान कर दी जिसके फलस्वरुप पृथ्वीराज को दिल्ली का युवराज धोषित कर दिया गया। अनंगपाल ने अपने दोहिते पृथ्वीराज को शास्त्र सम्मत युक्ति के अनुसार उतराधिकारी बनाने हेतु अजमेर के प्रधानमंत्री व कैमास को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने यह लिखा कि मेरी पुत्री का पुत्र 36 कुलों में श्रेष्ठ चौहान वंश का सिरमौर है, मै वृद्धावस्था के कारण उसे उत्तरदयित्व देकर भगवत् स्मरण को जाना चाहता हू तदुसार व्यवस्था करावे।

इस प्रकार हेमन्त ऋतु के आरम्भ में वि.सं. 1229 मार्गषीर्ष शुक्ल पंचमी गुरुवार को पृथ्वीराज का दिल्लीपति धोषित करते हुए राजतिलक किया गया। विग्रहाल जो की राजा अनंगपाल का निकट सम्बन्धी था उसके पुत्र नागार्जुन को पृथ्वीराज का दिल्ली अधिपति बनाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गदी पर बैठने की थी, परन्तु अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी धेाषित कर दिया था, उसके दिल में विद्रोह की लहरे मचलने लगी महाराज की मृत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फुट पडा। उसने सोचा के पृथ्वीराज तो अभी बालक है और युद्ध के नाम से ही धबरा जायेगा। नागार्जुन का विचार सत्य से एकदम विपरीत था। पृथ्वीराज  बालक तो जरुर था पर उसके साथ उसकी माता कर्पूरी देवी का आषीर्वाद और प्रधानमंत्री एवं सेनाध्यक्ष कमासा का रण कौषल साथ था। विद्रोही नागार्जुन ने गुडपुरा अजमेर पर चढाई कर दी। गुडपुरा(अजमेर) के सैनिको ने जल्दी ही नागार्जुन के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। नागार्जुन का साहस दोगुना हो गया। दिल्ली और अजमेर के विद्राहियों पर षिकंजा कसने के बाद सेनापति कमासा ने गुडपुरा की और विषाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कमासा युद्ध करने के लिए मैदान में आ डटा। दोनो तरफ से सैनिक बडी वीरता से लडे। अंततः कमासा की तलवार के सामने नागार्जुन का प्राणांत हो गया।

दिल्ली में पृथ्वीराज ने एक किले का निर्माण करवाया जो पिथौरा किले के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पृथ्वीराज चौहान का प्रथम विवाह बाल्यकाल में ही नाहर राय प्रतिहार परमार की पुत्री से होना निशिचत हो गया था, परन्तु बाद में नाहर राय ने अपनी पुत्री का विवाह करने से मना कर दिया इस पर पृथ्वीराज ने संदेश भिजवाया कि यदि यह विवाह नहीं हुआ तो युद्ध होगा और क्षत्रिय परम्परानुसार हम कन्या का हरण करके विवाह करने को बाध्य होगे। नाहर राय ने पृथ्वीराज की बात नहीं मानी और दोनो के बीच युद्ध हुआ जिसमें नाहर राय की पराजय हुई पृथ्वीराज ने कन्या का हरण कर विवाह किया।

द्वितीय विवाह आबू के परमारों के यहां हुआ राजकुमारी का नाम इच्छानी था।

तृतीय विवाह चन्दपुण्डी की पुत्री से हुआ।

चुर्तथ विवाह दाहिमराज दायमा की पुत्री से हुआ और इसी रानी से रयणसीदेव पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।

पंचम विवाह राजा पदमसेन यादव की पुत्री पदमावती से हुआ पदमावती एक दिन बाग में विहार कर रही थी तभी उसने वहा पर बैठै हुए एक तोते को पकड लिया वह तोता पृथ्वीराज चौहान के राज्य का था और शास्त्रवेता होने के कारण उसकी वाणी पर राजकुमारी मुग्ध हो गई तथा वह तोते को उपने पास रखने लगी पृथ्वीराज की वीरता और शोर्य की कहानी सुन कर व मोहित हो गई उसने संदेश भेजा की आप मेरा हरण कर मेरे साथ पाणिग्रहण करो मै आपकी भार्या हू, इस प्रकार पांचवा विवाह हुआ।

छठा विवाह देवगिरी के राजा तवनपाल यादव की पुत्री शषिवृता के साथ हुआ तनवपाल यादव की रानी ने पृथ्वीराज के पास संदेष भिजवाया की हमारी पुत्री ने आपको परिरुप में वरण करने का निष्चय किया है उसकी सगाई कन्नोज के राज जयचन्द राठौड के भाई वीरचन्द के साथ हुई है परन्तु कन्या उसे स्वीकार नहीं करती है अस्तु आप आकर युक्ति बुद्धि से वरण करें।

सप्तम विवाह सारंगपुर मालवाद्ध के राजा भीम परमार की पुत्री इन्द्रावती के साथ खड़ग विवाह हुआ जब  पृथ्वीराज विवाह हेतुसारंगपुर आ रहे थे तब दूत से खबर मिली की पाटण के राजा भोला सालंकी ने चितोड पर हमला कर दिया है। यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य शक्ति के साथ चितौड की और प्रयाण किया और सामंतो से मंत्रणा विवाह हेतु अपना खडग आमेर के राजा पजवनराय कछवाहा के साथ सारंगपुर भिजवा दिया निषिचत दिन राजकुमारी इन्द्रवती का पृथ्वीराज के खडग से विवाह की रस्म पूरी हुई।

अष्टम विवाह कांगडा के युद्ध के पष्चात जालंधर नरेष रधुवंष प्रतिहार हमीर की पुत्री के साथ पृथ्वीराज का विवाह सम्पन हुआ।

नवम् विवाह कन्नोज के राजा जयचन्द राठौड की पुत्री संयोगिता के साथ हुआ। संयोगिता अपने मन में पृथ्वीराज को अपना पति मान चुकी थी और उवने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आकर वरण करने का संदेष भिजवाया था। संयोगिता के विवाह हेतु राज जयचन्द ने स्वयंवर का आयोजन किया था जिसमें कई राजा महाराजाओं को निमंत्रित किया गया लेकिन पृथ्वीराज से मनमुटाव नाराजगी के कारण उनको निमंत्रण नही भिजवाया गया और उपस्थिति के रुप में द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा लगवा दी। स्वयंवर में राजकवि क्रमानुसार उपस्थित राजाओं की विरुदावली बखानते हुए चल रहा था और संयोगिता भी आगे बढती रही। इस प्रकार सभी राजाअेा के सामने से गुजरने के बावजुद किसी भी राजा के गले में संयोगिता ने वरमाला पहनाकर अपना पति नहीं चुना और द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में वरमाला डालकर पृथ्वीराज को अपना पति चुन लिया। इस कृत्य से जयचन्द बहुत क्रोधित हुआ और दूसरी वरमाला संयोगिता के हाथ में देकर पुनः सभी राजाओं की विरुदावलियों के बखान के साथ संयोगिता को स्वयंवर पाण्डाल में /kqek;k x;k fQj Hkh la;ksfxrk us i`Fohjkt ds xYks esa gh viuh ojekyk igukdj viuk ifr pquk blh izdkj rhljh ckj ds dze esa Hkh ogh ifj.kke gqvkA

तभी पृथ्वीराज ने जो कि अपने अंगरक्षकों के साथ उसकी प्रतिमा के पास खडा था संयोगिता को उठाकर अपने धोडे पर बिठा लिया और वहा से चल निकला। जयचन्द ने भी अपने सैनिक पृथ्वीराज के पीछे लगा दिये और बीच रास्ते में सैनिकों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और वह संयोगिता को लेकर दिल्ली पहुंच गया। बाद में जयचंद ने कुल पुरोहितों को यथेचित भेंट के साथ दिल्ली भिजवाकर पृथ्वीराज और संयोगिता का विधिवत विवाह करवाया और यह संयोगिता के लिए यह संदेष भिवाया कि है प्यारी पुत्री तुझे वीर चौहान को समर्पित करते हुए दिल्ली नगर में अपनी प्रतिष्ठा दाज में अर्पित करता हु। 

परन्तु पृथ्वीराज चौहान द्वारा राजकुमारी संयोगिता का हरण करके इस प्रकार कनौज से ले जाना जयचंद को बुरी तरह से कचोट रहा था।   जयचंद के दिल में अपमान के तीखे तीर से चुभ रहे थे। वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज का विध्वंश चाहाता था। भले ही उसे कुछ भी करना पडे। विशवसनीय सुत्रो से उसे पता चला की मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज से अपनी पराजय का बदला लेना चाहता है। बस फिर क्या था जयचंद को मानो अपने मन की मुराद मिल गयी। उसने गौरी की सहायता करके पृथ्वीराज को समाप्त करने का मन बनाया। जयचंद अकेले पृथ्वीराज से युद्ध करने का साहस नहीं कर सकता था। उसने सोचा इस तरह पृथ्वीराज भी समाप्त हो जायेगा और दिल्ली का राज्य उसको पुरस्कार स्वरुप दे दिया जायेगा। 

जयचंद की आंखो पर प्रतिशोध और स्वार्थ का ऐसा पर्दा पडा की वह अपने देश और जाति का स्वाभिमान भी त्याग बैठा, राजा जयचंद के देशद्रोह का परिणाम यह हुआ की जो मुहम्मद गौरी तराइन के युद्ध में अपनी हार को भुला नहीं पाया था वह फिर पृथ्वीराज का मुकाबला करने के लिए षडयंत्र करने लगा। 

राजा जयचंद ने दूत भेजकर गौरी को सैन्य सहायता देने का आशवासन दिया। देश द्रोही जयचंद की सहायता पा कर गौरी तुरंत पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए तैयार हो गया। मुहम्मद गौरी की सेना से मुकाबला करने के लिए पृथ्वीराज के मित्र और राज कबि चंदवरदाई ने अनेक राजपूत राजाओं से सैन्य सहायता का अनुरोध किया परन्तु संयोगिता के हरण के कारण बहुत से राजपूत राजा पृथ्वीराज के विरोधी बन चुके थे। वे कन्नौज नरेश के संकेत पर गौरी के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। 

तराइन के द्वितय युद्ध की सबसे बडी त्रासदी यह थी की देशद्राेही जयचंद के संकेत पर राजपूत सैनिक अपने राजपूत भाईयों को मार रहे थे। दूसरा पृथ्वीराज की सेना रात के समय आकर नहीं करती थी (यही नियम महाभारत के युद्ध में भी था) लेकिन तुर्क सैनिक रात को भी आक्रर्मण करके मारकाट मचा रहे थे। परिणामस्वरुप इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई।

देशद्राेही जयचंद का इससे भी बुरा हाल हुआ उसको मार कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया गया। पृथ्वीराज की हार से गौरी का दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, पंजाब और सम्पूर्ण भारतवर्ष पर अधिकार हो गया। भारत में इस्लामी राज्य स्थापित हो गया। अपने योग्य सेनापति कुतुबुदिन ऐबक को भारत का गवर्नर बना कर गौर पृथ्वीराज और चंदबरदाई को युध्बन्धी के रुप में अपने गृह राज्य की और रवाना हो गया।

पृथ्वीराज द्वारा निम्नलिखित युद्ध किये गए:-

प्रथम युद्ध - 1235 में अपने प्रधानमंत्री और माता के निर्देशन में चालुक्य भीम क्षरा नागौर पर हमला करने के कारण लडा और उसमें विजयी हुए।
द्वितीय युद्ध - राजरू सिंहासन पर बैठते ही मात्र 14 वर्ष की आयु में पृथ्वीराज से गुडगांव पर नागार्जुन ने अधिकार के लिये विद्रोह किया था उसमें वि.सं.1237 में विजय प्राप्त की।
तृतीय युद्ध - वि.सं. 1239 में अलवर रेवाडी भिवानी आदि क्षेत्रों में मदानकों ने विद्रोह किया इस विद्रोह को दबाकर विजय प्राप्त की।
चर्तुथ युद्ध - विंसं. 1239 में ही महोबा के चंदेलवंशी राजा परमार्दि देव पर आक्रमण कर उस युद्ध में विजय प्राप्त कर उसके राज्य को अपने अधीन किया।
पंचम युद्ध - कर्नाटक के राज वीरसेन यादव को जीतने के लिये उस पर हमला करके उसे अपने अधीन कर लिया और दक्षिण के सभी राजा इस युद्ध के बाद उसके अधीन हो गये सब राजाओं ने मिलकर इस जिय पर पृथ्वीराज को कई चीजे भेंट की।
छठा युद्ध - कागडा नरेष भेटी भान को कहलवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें परन्तु इसे स्वीकार  नहीं किया इस कारण पृथ्वीराज ने कांगडा पर हमला किया जिसमें भोटी भान मारा गया भान के पष्चात उसका साथी वीर पल्हन जो षिषुपाल का वंषज था एक लाख सवार और एक लाख पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने आया इस पर पृथ्वीराज ने मुकाबला करने के लिए जांलधर नरेश रधुवंश प्रतिहार हमीर को कांगडा राज्य का प्रषासन सौपर दोनो की संयुक्त सेनाओं ने वीर पल्हन को बन्दी बनाकर कांगडा में चौहान राज्य स्थापित किया। बाद में पृथ्वीराज ने हमीर को ही कांगडा का राजा बना दिया। जिसने पहले ही पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। हमीर ने अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज से कर पारीवारिक सम्बंध स्थापित कर लिये।

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच शत्रुता एंव युद्ध

मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका रुपवान एवं बहुत सुन्दर स्त्री थी वह संगीत एवं गान विधा में निपुण थी। शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था मीर हुसैन वह बाण चलाने वाला, तलवार का धनी, वचनो का पक्का, संगीत का प्रेमी थी। चित्ररेखा गौरी को बहु प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र मुग्ध था। इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई। गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि चित्ररेखा तेरे लिये कालस्वरुप है यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होगे इसक हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा। इस पर गौरी कोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया की वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड कर चला जाए अन्यथा उसे मार दिया जाएगा। इस बात पर हुसैन ने अपनी स्त्री पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को छोड कर पृथ्वीराज की शरण ली उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे। 
शरणागत का हाथ पकडकर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है इधर मोहम्मद गौरी ने अपने सिपहसालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मना कर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुशमनी हो गई।

Raids of Muhmammad Ghori
Ist ;q)
1175 AD
Over Multan and Uchha
IInd ;q)
1178 AD
Over Abu and Anilwar
IIIrd ;q)
1179 AD
Over Punjab (Peshawar)
IVth ;q)
1185 AD
Over Sialkot
Vth ;q)
1186 AD
Defeated Malik Khusoro of Lahore and captured Punjab
VIth ;q)
1191 AD
Ist Battle of Tarain
VIIth ;q)
1192 AD
IInd Battle of Tarain
VIIIth ;q)
1194 AD
Against Kannauj, defeated Jaichand
IXth ;q)
1205,1206 AD
Against Khokkar (A tribe of Punjab)

पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को 17 बार बुरी तरह से परास्त किया। जब जब मोहम्मद गौरी परास्त होता उसको जान की बख्शीष दे कर छोड दिया जाता। 15वी बार किये गये हमले में पृथ्वीराज ने कैदखाने में गौरी से कहा कि आप बादशाह कहलाते है और बार बार प्रोढ़ा की भांति अपमान करवाकर धर लौटते हो आपने धर्म और कर्म को भी छोड दिया है किन्तु हम अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध है आने कछवाहो के सामने रणक्षेत्र में मुुंह मोडकर नीचा देखा है इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। इसी पर चंद्रवरदायी ने पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहा कि हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।

काश ये उदारता पृथ्वीराज चौहान ने नहीं दिखाई होती -


18वी बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सैन्य का अंदाज नहीं था, उन्होने सोचा पहले कितने ही युद्धो में गौरी को मुंह की खानी पडी है इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर जियश्री हासिल कर लेगी। इसी अदूरदर्षिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के धाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया।  गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ धोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया

गया। गौरी ने यातना स्वरुप पृथ्वीराज की आंखे निकलवा ली और ढाई मन वजनी लोहे की बेटियों में जकडकर एक धायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया। इसके परिणाम स्वरुप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारो क्षत्राणिययों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपने मान मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोण कर अपने प्राण त्याग दिये।


इधर पृथ्वीराज के राजकवि चन्दवरदायी पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुचे वहा पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के दिल को गहरा आधात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट है और इन्हे शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते है इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हे क्या करना है निशिचत तिथि को दरबार लगा और गौरी एक उच्चे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई के निर्देषनुसार लोहे के सात बे बडे तवे निशिचत दिशा और दूरी पर लगवाये गये चूकि पृथ्वीराज की आंखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे अतः उनको कैद एवं बेडियों से आजाद कर बैठने के निशिचत स्थान पर लाया गय और उनके हाथे में धुनष बाण थमाया गया इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के बीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरुदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत गरवाया:-  
’’ चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। ता उपर सुल्तान है, मत चूके चौहान ।। ’’  

अर्थात चार बांस, चौबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के उपर सुल्तान बैठा है इसलिये चौहान चूकना नहीं अपने लक्ष्य को हासिल करो।

इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्ततिक स्थिती का आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी है इसलिए आप इन्हे आदेश दे तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने बाण का प्रदर्शन करेगे इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रर्दशन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया। गौरी नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरु उड गए चारो और भगदड और हाहाकार मच गया इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। 

आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई की समाधी काबुल में है इस प्रकार भारत के अन्तिम हिन्दू प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया।

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